मरण चेतना का द्वार – जब कृशांत ने मृत्यु से पहले डर को देखा | नरकवंश अध्याय ४


रक्त-मंडल में बैठा कृशांत मरण चेतना की साधना करते हुए, सामने अधजली आत्मा की प्रकट होती छवि, रहस्यमय और डरावने वातावरण में
कृशांत की मरण चेतना साधना — जहाँ आत्मा की सच्चाई और मृत्यु का भय एक साथ प्रकट होते हैं।



“जो जीवित हैं, वो क्या सोचते हैं —यह समझना आसान है।पर जो मरने वाले हैं… उनके डर तक पहुँचना — वही मरण चेतना है…”

पिछली रात...चारों ओर गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था। झोपड़ी की दीवारों पर टिमटिमाती दीपक की लौ भी अब मंद पड़ने लगी थी। आकाश में न कोई चाँद था, न कोई तारा —सिर्फ अंधकार था… और उसके भीतर कुछ करवटें बदलता हुआ।

कृशांत…अब साधक नहीं रहा। वो क्षण जब उसकी आँखों के सामने आत्मा ने मुक्त होकर अंतिम बार देखा था —उसकी पलकों में वो चिरंतन छवि रच गई थी।

“प्रेतदृष्टि” के जागते ही उसे वो सब दिखने लगा, जो अब तक केवल मृत्यु के पार था। उसने पहली बार किसी आत्मा को उसके बंधन से मुक्त किया था — और उस अनुभव ने उसके भीतर कुछ तोड़ दिया था… या शायद जगा दिया था।

थके क़दमों और धूल से सने पैरों के साथ कृशांत व्रणक की दी हुई काली पोथी के पास पहुँचा। उसके हाथ काँप रहे थे —उसका शरीर थका था, लेकिन भीतर कहीं कोई ऊर्जा, कोई नया कंपन दौड़ रहा था।

जैसे ही उसने पोथी को छुआ… अगला पन्ना अपने-आप खुल गया। न कोई हवा चली, न कोई संकेत मिला— बस वो पन्ना ऊपर उठा, और सामने आ गया...मानो किसी अदृश्य सत्ता ने कहा हो —"अब तू तैयार है अगले द्वार के लिए।"

पन्ने पर एक शीर्षक था: "स्तर 2: मरण चेतना"

पन्ने की स्याही अब तक के सभी अक्षरों से गहरी थी —शब्द उभरते नहीं, साँस लेते लग रहे थे। कृशांत की आँखें फैल गईं, उसका मस्तिष्क खुद से सवाल पूछने लगा — "मरण चेतना...? क्या ये मृत्यु को समझने का कोई और तरीका है?"

और तभी पन्ने से एक ठंडी लहर सी उठी…जैसे किसी ने सिरहाने साँस छोड़ी हो। "जिसे प्राप्त करने वाला व्यक्ति, दूसरों की मृत्यु से पहले उनके डर और छिपे हुए सत्यों को देख सकता है।"

ये कोई कौशल नहीं था — ये शाप और वरदान का संगम था।मरण चेतना… मतलब किसी की मृत्यु से पहले उसके भीतर झाँकना —देखना कि वह किस भय से टूटा है, कौन-सा राज़ उसे जकड़ कर रखे है… और किस घड़ी में उसकी आत्मा छटपटाने लगेगी।

लेकिन इसके लिए भी एक शर्त है: "इस स्तर को पाने के लिए, तुझे एक जीवित व्यक्ति के भीतर झाँकना होगा — और देखना होगा, कि वह किस वजह से मरता है…"

यह वाक्य नहीं — चेतावनी थी। “एक जीवित व्यक्ति” मतलब वो जो साँस ले रहा है, पर जिसके भीतर कोई न कोई “मृत्यु” पहले से बस चुकी है। और उस मृत्यु को देखने की क्षमता…कृशांत को मरण चेतना का द्वार देगा।

पर कैसे? क्या वह किसी को छू कर यह देखेगा? या फिर…उसकी प्रेतदृष्टि अब उसे जीवित मनुष्य के भीतर छिपे प्रेत भी दिखा सकती है?

कृशांत उस पन्ने को बंद नहीं कर सका। वो घूरता रहा — जैसे शब्दों ने उसकी आत्मा में धँसने की ठान ली हो। झोपड़ी के कोने में बैठे व्रणक की मुँदी हुई आँखें धीरे-धीरे खुलीं —और उसने कहा: “अब तू केवल आत्माओं से नहीं — मृत्यु से भी संवाद करेगा।”

अगले दिन – गाँव में एक हलचल मची हुई थी, सूरज अब पहाड़ी की चोटी से थोड़ा ऊपर आ चुका था, लेकिन शमशानपुर के कुछ घरों में अभी भी दीये जल रहे थे। गाँव की गलियों में कानाफूसी चल रही थी —किसी ने कुएं पर सुना था, किसी ने मंदिर के पीछे…“मुखिया का बेटा… हरिश… वो दो दिन से सोया नहीं है।”

शुरुआत में लोगों ने समझा — कोई बुखार होगा। पर अब बात बढ़ने लगी थी…हरिश — वही, कोई दस साल का मासूम बच्चा, जिसकी आँखें अब हर किसी को डराने लगी थीं। हरिश अब किसी से आँखें नहीं मिलाता। वो घर की खिड़की से सटकर बैठा रहता है — जैसे किसी को आते देखना चाहता हो… या शायद रोकना।

उसके होंठ सूख गए थे, शरीर काँपता था… और वो बार-बार एक ही बात कहता: “मुझे कोई देखता है… रात को कोई खिड़की से झाँकता है… वो मुझे लेने आ रहा है… मुझे लेने आ रहा है…!”

उसकी माँ फूट-फूट कर रोती है, और मुखिया — शक्तिशाली होते हुए भी — आज खुद डर से भीगा हुआ था। हरिश… अब धीरे-धीरे पागल हो रहा था।

इधर व्रणक की झोपड़ी में अंधेरा था। पोथी अभी भी वही खुली थी — “मरण चेतना” वाले पन्ने पर। कृशांत ध्यान में बैठा था, पर उसकी आँखों में एक असमंजस था।

तभी व्रणक की भारी आवाज़ गूँजती है: “तेरे सामने अब एक जीवित आत्मा का भय है। तुझे उस बालक के मन में उतरना होगा…”

कृशांत सकपकाता है, उसके चेहरे पर भय की झलक दौड़ती है: “कैसे उतरूँगा मैं उसके मन में?”

व्रणक उसे बताते हैं: “तू उसका डर महसूस करेगा… और जब वो डर तुझमें समा जाए — तब तू देखेगा वो… जो वो छिपा रहा है। तू देखेगा उसकी मृत्यु की छाया… वो जो अभी नहीं आई, लेकिन करीब है।”

 व्रणक "मरण बिंदु" की साधना की तैयारी करता है, व्रणक ने एक पुराने तांत्रिक ग्रंथ से एक पन्ना निकाला — उस पर काले अक्षरों से लिखा था: “मरण बिंदु प्रवेश”

 “यह साधना मरण चेतना को सक्रिय करने के लिए होती है।इसे करने वाले को उस व्यक्ति से जुड़ी कोई वैयक्तिक वस्तु चाहिए होती है… जिससे उसकी ऊर्जा बहती हो।”

कृशांत गाँव जाता है — और मुखिया से बिना कुछ पूछे…वो हरिश के पुराने कमरे में जाता है। कमरे के कोने में एक पुराना टूटा हुआ लकड़ी का खिलौना घोड़ा पड़ा था, जिसके पाँव जले हुए थे… और उस पर अब भी हरिश का नाम खरोंचकर लिखा था।

रात के तीसरे प्रहर में, कृशांत एक निर्जन स्थान पर, सूखी मिट्टी पर रक्त से मंडल बनाता है। उस घोड़े को मंडल के मध्य रखता है — और स्वयं उसके सामने पद्मासन में बैठता है।

चारों ओर एक सन्नाटा था…एक ऐसा मौन जो भीतर उतर जाए। वह मंत्र बोलता है — धीमे-धीमे… साँसों में मिलाकर। “मनसः प्रतिच्छाया…मृत्यु पूर्वदर्शनं…भय प्रवेशे — जीव चेतना दर्शनं…”

मंत्र समाप्त होते ही हवा एकाएक भारी हो जाती है — जैसे वायुमंडल ने साँस लेना छोड़ दिया हो। कृशांत की आँखें एकदम सफ़ेद हो जाती हैं — नीली रेखाएँ उसकी आँखों के पास उभर आती हैं… और उसका शरीर काँपने लगता है।

अचानक…वो ज़मीन पर गिर जाता है। उसका मुँह खुला रह जाता है…लेकिन शब्द नहीं निकलते।

कृशांत अब हरिश के भीतर जा चुका है —उसके मन की मृत्यु-छाया में। 

अब कृशांत…अपने शरीर से बाहर है।उसकी आत्मा हरिश के चेतन मन में नहीं — बल्कि उसके भीतर छिपे भय के तल में प्रवेश कर चुकी है। वहाँ न समय है, न दिशा। सब कुछ टेढ़ा है… उल्टा है… मानो कोई टूटा हुआ सपना हो जो दोबारा जुड़ने से इंकार कर रहा हो।

चारों ओर गाढ़ा अंधकार है — जैसे किसी ने रोशनी का गला घोंट दिया हो। और उस अंधेरे में एक ही चीज़ साफ़ सुनाई देती है: हरिश की चीखें…

तभी कृशांत के सामने एक दरवाज़ा उभरता है — पुराना, लकड़ी का… जिसमें नाखूनों के निशान हैं, और खून की सूखी रेखाएँ। दरवाज़े के पीछे से हरिश की चीखें गूंज रही हैं: “नहीं… वो फिर आ गई… मुझे अकेला छोड़ दो… मत देखो मुझे… मैंने किसी को कुछ नहीं बताया…”

कृशांत धीरे से दरवाज़ा खोलता है… दरवाज़ा खुलते ही वह खुद को एक सूनी, धुंधभरी गली में पाता है। दीवारें झुकी हुई हैं, घरों की खिड़कियाँ टूटी हुई — और हवा में जलती मांस की गंध है। छोटा हरिश उस गली में दौड़ रहा है — दहशत में, बदहवास सा।

वो किसी से बचने की कोशिश कर रहा है। और पीछे से आती है — एक अधजली औरत, जिसके हाथ में झाड़ू है। उसके कपड़े जले हुए हैं, चमड़ी झुलसी है, और चेहरा स्याह काला।

वो चीखती है — उसकी आवाज़ इंसानी नहीं लगती… आधी जलती लपटों जैसी। “हरिश… तू झूठा है… तूने मुझे जलते देखा… फिर भी किसी को नहीं बताया…”

हरिश कांप रहा है — वो चीखता है, “मुझे माफ़ कर दो!” कृशांत स्तब्ध है —ये डर कोई कल्पना नहीं है, ये किसी आत्मा की उपस्थिति है। “ये कौन है? क्यों पीछा कर रही है हरिश का?”

गली अचानक बदलती है — एक नई झलक उभरती है। अब कृशांत एक और दृश्य में खींचा चला जाता है —एक पुरानी झोंपड़ी में, जहाँ आग की लपटें उठ रही हैं। बाहर खड़ा है — हरिश का पिता। उसके हाथ में मशाल है, और चेहरा कठोर।झोंपड़ी के भीतर से एक औरत की चीखें आ रही हैं: “बचाओ… कोई तो बचाओ…मैंने कुछ नहीं किया…”

फिर एक आवाज़ आती है — बहुत धीमी, लेकिन बहुत सच्ची: “ज़मीन मेरी है… लेकिन अब तू नहीं रहेगी…”

झोंपड़ी जलती है। आग की लपटें आकाश छूने लगती हैं।छोटा हरिश… दूर खड़ा देख रहा है —डरा हुआ, चुपचाप।

यह वही औरत थी…गाँव की एक विधवा, जिसे हरिश के पिता ने ज़मीन के झगड़े में ज़िंदा जला दिया था। हरिश उस दिन सब देख रहा था — लेकिन डर के मारे चुप रहा। न किसी से कहा, न रोया… बस उस डर को भीतर दबा लिया। वो औरत अब आत्मा बन चुकी है — अधूरी, अधजली, और हरिश से बदला लेने को तैयार।

कृशांत जान चुका था — अगर हरिश सच नहीं बोलेगा, तो यह आत्मा कभी शांत नहीं होगी… और उसकी “मरण चेतना” अधूरी रह जाएगी।

वह मंत्र दोहराता है —अब बहुत तेज़ आवाज़ में। “मनसः प्रतिच्छाया… मृत्यु पूर्वदर्शनं…भय प्रवेशे — सत्य विमोचनम्…!”

वह हरिश की आत्मा तक पहुँचता है —और एकदम से चीख पड़ता है: “सच बोल! तेरी आत्मा तभी बचेगी!”

हरिश काँपने लगता है — उसका डर अब टूटने लगा है… हरिश फूट-फूट कर रोने लगता है। उसकी आँखों से आँसू नहीं —बल्कि सालों से दबे पाप बह रहे थे। “मैंने सब देखा था…बाबा ने झोंपड़ी में आग लगाई थी… मैं वहाँ था… मैं डर गया था… मैंने कुछ नहीं बोला…”

और तभी… वो औरत — जो अब तक अधजली आत्मा बनी पीछा कर रही थी — धीरे-धीरे धुएँ में बदलने लगती है। उसका चेहरा शांत होता है… और वो हरिश को देखती है — "अब तूने सच कह दिया… अब मैं मुक्त हूँ…" वो लहर बनकर हवा में विलीन हो जाती है।

कृशांत की साँसें तेज़ हो गई थीं। उसकी आँखें अब सफ़ेद नहीं — धुँधली थीं, और भीग चुकी थीं। वह जाग चुका था —पर अब केवल "प्रेतों" को देखने वाला नहीं, अब वो ‘मरण चेतना’ वाला साधक बन चुका था।

क्या हरिश अब ठीक है? हाँ… अगले दिन गाँव में सबने देखा — हरिश पहली बार मुस्कुरा रहा था। उसकी आँखों से डर चला गया था।

लेकिन कृशांत जानता था — ये सिर्फ शुरुआत थी… मरण चेतना का अगला स्तर — और भी खतरनाक होगा।

हरिश की सच्चाई उजागर होते ही, गली में पसरा धुआँ धीरे-धीरे शांत होने लगा।

कृशांत अभी भी "मरण चेतना" की साधना में बैठा था, उसका शरीर शांत था… लेकिन आत्मा अब भी उस औरत की उपस्थिति को महसूस कर रही थी। और तभी… वो प्रकट हुई।

गहरे धुएँ और झुलसी हुई हवा के बीच, वो आत्मा — जिसे कभी विधवा कहा गया था, अब एक सौम्य रौशनी में बदल रही थी। उसका जला हुआ चेहरा अब नर्म हो गया था। उसकी आँखों में गुस्सा नहीं —एक गहरी शांति थी।

वह कृशांत की ओर देखती है — उसके पास आकर झुकती है, और उसकी आत्मा में उतरते हुए कहती है: “तू नर्क नहीं लाया कृशांत… तू तो हमारे लिए रास्ता है।”

ये कोई धन्यवाद नहीं था — ये एक स्वीकारोक्ति थी। कृशांत केवल देखने वाला नहीं था, अब वह ‘राह’ बन चुका था — अधूरी आत्माओं की मुक्ति का रास्ता। और अगले ही क्षण —वो औरत हवा में घुल जाती है, जैसे उसे उसकी मंज़िल मिल गई हो…

साधना मंडल के भीतर अचानक एक हल्की-सी लपट उठती है — जैसे किसी ने एक और द्वार खोल दिया हो। कृशांत के माथे पर अब एक नया चिह्न उभरता है —तीन बिंदुओं का जो त्रिकोण बनाते हैं —"मरण बिंदु चिह्न"।

एक आवाज़ उसके भीतर गूंजती है — न व्रणक की, न किसी आत्मा की… बल्कि उसकी अपनी आत्मा की।“स्तर 2 पूर्ण —अब तू लोगों की आँखों में देखकर उनके सबसे गहरे डर, गुनाह, और मृत्यु का कारण महसूस कर सकता है।”

परंतु… हर शक्ति की एक कीमत होती है। अब कृशांत जब किसी को देखता है —उसे उनका भविष्य नहीं, उनकी मृत्यु की झलक दिखाई देती है। हर मुस्कुराते चेहरे में छिपा दर्द, हर शांत इंसान के भीतर दबा गुनाह, हर आत्मा की डूबती साँस —उसे दिखने लगी थी। और यह… धीरे-धीरे उसकी आत्मा को खोखला करने लगा।

झोपड़ी में लौ मंद हो चुकी थी। व्रणक, हमेशा की तरह अंधेरे में बैठा — शांत, गंभीर, जैसे सब पहले से जानता हो। कृशांत उसके सामने बैठा था — उसका मस्तिष्क भारी, आँखें लाल, और आत्मा डगमगाती हुई लग रही थी।

व्रणक धीरे से कहता है: “हर शक्ति तुझे एक आत्मा से जोड़ती है, कृश… पर जिस दिन तू खुद से कट जाएगा —उस दिन तू ‘नरकवंशी’ नहीं… तू खुद एक ‘नरक’ बन जाएगा…”

कृशांत उसकी आँखों में देखता है —पर अब वहाँ सिर्फ गुरु नहीं, भविष्य का डर भी था।

झोपड़ी के बाहर सुबह हो चुकी थी। गाँव धीरे-धीरे जाग रहा था… पर कृशांत जानता था — उसकी रातें अब और कभी शांत नहीं होंगी। अब हर जगह उसे डर दिखेगा —दूसरों का भी… और धीरे-धीरे खुद का भी।


🩸 To Be Continued…



👉 अगला अध्याय पढ़ें: मरण चेतना का द्वार 2


      पिछला अध्याय पढ़ें: अध्याय 3: काली पोथी का पहला पन्ना 



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१. नरकवंश अध्याय १: वो पहली आवाज़ – कृशांत कौन है? 


२. नरकवंश अध्याय 2: प्रेतदृष्टि का प्रारंभ 


३. अल्केमी मास्टर की वापसी


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❗ डिस्क्लेमर


यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक और फिक्शनल है। इसमें वर्णित तांत्रिक क्रियाएँ, शक्तियाँ या धार्मिक संदर्भ किसी भी वास्तविक धर्म, पंथ या आस्था का अपमान नहीं करते।


"नरकवंश – अमावस का उत्तराधिकारी" एक हॉरर फिक्शन सीरीज़ है जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन और रोमांच पैदा करना है।


कृपया इसे यथार्थ से जोड़कर न देखें।