नरकवंश: अमावस का उत्तराधिकारी अध्याय १
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| ‘वो पहली आवाज़’ | कृशांत की रहस्यमयी पहचान | नरकवंश सीरीज़ का कवर पेज |
शमशानपुर के बाहरी इलाके पर खड़ा वो प्राचीन शिव मंदिर, जिसकी दीवारें आज भी काई से ढँकी थीं और जिसकी घंटियाँ वर्षों से खामोश थीं, लेकिन आज किसी अनजानी आहट से काँप उठीं।
मंदिर के ठीक बीचोंबीच एक पुरानी, लोहे की घड़ी टँगी थी — जिसके कांटे जाम हो चुके थे, पर फिर भी…टिक... टिक... टिक...की आवाज के साथ घड़ी चल रही थी। लेकिन कैसे?
किसी ने उसे छुआ तक नहीं था। तभी मंदिर की सीढ़ियाँ चरमराईं। चर्ऽ… चर्ऽ… चर्ऽ…
जैसे कोई नंगे पाँव, भारी साँसों के साथ ऊपर भागा चला आ रहा हो।अचानक घड़ी की सुई ने एक सेकंड और काटा। टिक…और उसी पल मंदिर की छत से एक भारी बगुला नीचे गिरा — मरा हुआ।
चारों ओर एक गूँज उठी, मानो किसी ने मंदिर के भीतर फुसफुसाया हो:> “वो आ रहा है...”
मंदिर की दीवारों पर बनीं पुरानी मूर्तियाँ, जो सदियों से ख़ामोश थीं, उनमें से एक मूर्ति की आँख से धीरे-धीरे लाल रंग की बूँद बह निकली, जैसे खून रिस रहा हो।
घंटी अपने आप थरथरा कर हिलने लगी। लेकिन उसे कोई बजा नहीं रहा था। पास ही एक बूढ़ा पुजारी काना बाबा बैठा था। उसकी आँखें अधखुली थीं, और उसके होंठ थरथरा रहे थे। उसने धीरे से अपना सिर उठाया, और काँपते स्वर में बोला: > "अमावस की वो रात… फिर लौट आई…है। अबकी बार... उत्तराधिकारी जन्म लेगा।"
हवा एक बार फिर पूरे वेग से मंदिर में घुसी, दीयों को बुझा गई… और फिर सब शांत हो गया। सिर्फ़ घड़ी…की टिक… टिक… टिक… सुनाई देती है।
वहां से बहुत दूर एक वीरान पहाड़ी की चोटी पर, पेड़ों से ढँका एक जर्जर मंदिर, जिसकी छत गिर चुकी थी, और दीवारें तंत्र-मंत्र से भरी हुई थीं। मंदिर के सामने ज़मीन को गोलाई में खोदा गया था, जिसमे बने थे सात अग्निकुंड।
हर अग्निकुंड में जल रही थी नीली, काली और बैंगनी लपटों से सुलगती अजीब-सी आग, जो न धुआँ छोड़ती थी, न रोशनी... बस एक अजीब सी चुभन महसूस होती थी।
हर अग्निकुंड जैसे धरती से कोई शाप उगल रहा हो। उसके बीचोंबीच ज़मीन पर पड़ी थी एक गर्भवती औरत। उसका चेहरा पीला, शरीर खून से लथपथ, पेट में गहरे नाखूनों के निशान थे, हाथ-पैर रस्सियों से बँधे हुए थे जो अब उसके माँस में धँस चुकी थीं।
उसकी आँखें अधखुली थीं — और होंठ बुदबुदा रहे थे:> "क… कृपया… मेरा बच्चा…" लेकिन किसी ने उसकी आवाज़ नहीं सुनी। उसके चारों ओर खड़े थे काले चोगों में सात तांत्रिक, उनके चेहरों पर भस्म लगी थी, कुछ के कान कटे हुए, कुछ की आँखें लाल थी, जैसे वो किसी दूसरी दुनिया से आए हों।
हर तांत्रिक के सामने एक खोपड़ी रखी थी जिसके भीतर जल रही थी एक अलग रंग की आग। सबसे आगे खड़ा था मुख्य तांत्रिक — व्रणक। उसके गले में साँप की खाल से बनी माला थी, माथे पर उल्टा त्रिशूल बना था, और शरीर में जगह-जगह ताज़ा खून के छींटे थे।
वह ज़ोर से चिल्लाया: > "यज्ञ प्रारंभ करो!" और उसी पल सभी तांत्रिकों ने एक साथ सिर ऊपर उठाकर मंत्रोच्चारण शुरू किया: > “आगत्यं रुधिरं... यंत्रं पिशाचं... जन्म भव!”
चारों दिशाओं में हवा भयंकर तरीके से गूँज उठी। पेड़ एक-दूसरे से टकराने लगे। जंगल का सन्नाटा टूट चुका था, अचानक, उस औरत की चीख निकली > “आआआआह्ह्ह!!”
उसके पेट के भीतर कुछ हिल रहा था — जैसे कोई बच्चा नहीं, कोई नाग जैसा जीव जन्म लेने को मचल रहा हो। सातों अग्निकुंडों की लपटें एक साथ ऊपर उठीं — जैसे किसी अनदेखी शक्ति ने उन्हें चूम लिया हो।
मुख्य तांत्रिक व्रणक ने अपने हाथ की नस काटी, और खून अग्निकुंड में डाला। > “नरक की संतान…रक्त से तू सिंचित…अग्नि से तू जागृत…जन्म ले!”
अचानक हवा तेज़ चलने लगी… बिना बादल के बिजली कड़क उठी…उस औरत ने एक आख़िरी चीख मारी — और उसका शरीर शांत हो गया।
लेकिन उसका पेट…वहाँ अब भी कुछ हिल रहा था। जैसे कहीं कोई जन्म ले रहा था।
सारे तांत्रिक कुछ पल तक अपनी जगह खड़े रह गए। उनके चेहरे पर हैरानी और डर की एक अजीब-सी लहर दौड़ जाती है।
ऐसे यज्ञों में अक्सर जो होता है — रोना, चिल्लाना, शरीर का काँपना — वो कुछ नहीं हुआ। बस… शांति। भयानक, अशुभ शांति।
सातों तांत्रिक अनजाने डर से एक-दूसरे की ओर देखते हैं… और धीरे-धीरे एक कदम पीछे हटते हैं। व्रणक, जो अब तक मंत्रों की अग्नि में मग्न था, धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। उसके हाथ में है एक काले रंग का मोटा कम्बल, जिसके किनारे रक्त से रचे पुराने यंत्र और मंत्र उकेरे हुए हैं।
वो लड़खड़ाते क़दमों से औरत के पास आता है, जो अब पूरी तरह निष्क्रिय है — उसकी आँखें अब भी खुली हैं, पर प्राण जा चुके हैं।
उसके शरीर के नीचे लेटा है एक नवजात शिशु। न उसका शरीर काँप रहा है, न वह रो रहा है, और न ही उसने अपनी मुट्ठियाँ भींची हैं। वो बस…चुपचाप, स्थिर लेटा है। और देख रहा है। सीधा व्रणक की आँखों में। व्रणक का शरीर ठिठक जाता है। उसका हाथ काँपने लगता है। वह बाँए घुटने पर गिर जाता है, और बड़बड़ाना शुरू करता है…
“ये… ये रो नहीं रहा…ये हमें… देख रहा है…! ये जानता है हम क्या हैं…जैसे… जैसे ये अभी से सब जानता है…” व्रणक की आँखें फटी की फटी रह जाती हैं। वो बच्चा एक पल के लिए अपनी काली, पूर्णतः शून्य आँखें झपकाता है। उन आँखों में कोई चमक नहीं थी…कोई जीवन नहीं था…पर फिर भी, एक मौजूदगी है। एक डर है। एक शून्य, जो सब कुछ निगल सकता है।
पीछे खड़े एक तांत्रिक की साँस अटकती है। वो फुसफुसाता है: > “यह मानव नहीं… यह… नरक का उत्तराधिकारी है।” तभी हवा फिर तेज़ चलती है, अग्निकुंड की लपटें एक पल के लिए काली पड़ जाती हैं, और दूर जंगल से भेड़ियों का सामूहिक विलाप सुनाई देता है। आहह्हउउउउउउ!!
व्रणक फिर धीरे से कम्बल बढ़ाता है, बच्चे को लपेटने के लिए, और फुसफुसाता है:“आज अमावस के गर्भ से जो जन्मा है…वह रोता नहीं…क्योंकि वह शिकार करने आया है।”
वो औरत…जिसकी कोख से ये बच्चा जन्मा था, अब तक उसकी साँसे टूट-फूट के साथ चल रही थीं। उसका चेहरा पीला पड़ चुका था, उसके होंठों पर खून की परत जम चुकी थी,और उसकी आँखें — खुली हुई, पर अब भी जैसे किसी अनदेखे डर को घूर रही थीं। वो एक पल के लिए हिली।उसकी उँगलियाँ ज़मीन पर फड़फड़ाईं।
तांत्रिक पीछे हट चुके थे…व्रणक के हाथों में बच्चा लिपटा हुआ था…तभी उस औरत के गले से एक टूटी-फूटी आवाज़ निकली —एक आख़िरी साँस, एक आख़िरी चेतावनी। “मेरे… बेटे को… इंसान मत… समझना…”
व्रणक की आँखें चौड़ी हो गईं। वो पलट कर उसे देखने लगा। “यह… श्राप है…” और उसकी गर्दन धीरे-धीरे एक ओर लुड़क जाती है। उसकी आँखें खुली रह जाती हैं — जैसे आसमान को देख रही हों। चारों ओर एक अजीब सन्नाटा छा गया। एक पल के लिए अग्निकुंड की सारी लपटें सीधी खड़ी हो गईं —मानो उन शब्दों को सुनते ही क्रोधित हो उठी हों।
आग ने रंग बदला —नीली से काली, और फिर लाल रक्त जैसी। वृक्षों की शाखाएँ अचानक झुक गईं, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उन्हें दबा दिया हो। दूर पहाड़ों में बादल गरजे —बिना बारिश के, बिना बिजली के। “गडगडडडडडडडडड!!”
वो बच्चा अब भी चुपचाप था।उसकी आँखें माँ की तरफ उठीं…लेकिन उसमें कोई दुख नहीं था। बस… शून्य था। व्रणक ने काँपते हाथों से उसे और कसकर कंबल में लपेटा,और फुसफुसाया:“तेरी माँ तुझे श्राप कह गई…और हम तुझे… वरदान मानते हैं। तेरा समय आएगा… नरकवंशी।”
फिर उसने पीछे मुड़कर शेष तांत्रिकों से कहा: “उसका शरीर मत जलाओ। उसे वहीं दफ़ना दो — जहाँ अमावस सबसे गहरी होती है।”
अगली सुबह सूरज की पहली किरण अभी धरती को छूने ही वाली थी, पर शमशानपुर का मैदान पहले से भर चुका था।गाँव के लोग —औरतें, बूढ़े, बच्चे, जवान — सब जमा थे। सभी की नज़रें एक ही दिशा में थीं…व्रणक, सिर झुकाए, अपनी काली चोगे में लिपटा हुआ —गोद में वो बच्चा लिए खड़ा था। बच्चा शांत था…एकदम शांत।
लेकिन उसके शरीर से उठती हल्की, सफेद धुएँ की रेखा गाँव वालों के मन में भय और जिज्ञासा दोनों भर रही थी।फुसफुसाहटें शुरू हुईं: “ये बच्चा है या… पिशाच? जिसके जन्म लेते ही, उसकी माँ उसी वक्त मर गई…ये देखो, इसकी त्वचा से धुआँ निकल रहा है! इन आँखों में इंसानियत नहीं… सिर्फ़ अंधेरा है…”
कुछ औरतें पीछे हट गईं। एक बच्चे ने डर से अपनी माँ की साड़ी पकड़ ली। तभी भीड़ चुप हो गई —गाँव का बुज़ुर्ग प्रधान धीरे-धीरे आगे आया। सफ़ेद धोती, काँपते पैर, लाठी के सहारे चलता हुआ —उसके चेहरे पर झुर्रियों से ज़्यादा डर था।
उसने व्रणक के सामने आकर आँखें उठाईं… और थरथराते स्वर में कहा: “व्रणक… इसे नदी में बहा दो…इसने अमंगल लाया है… और आगे चलकर ये विनाश लाएगा।”
अचानक वहां सन्नाटा छा गया। व्रणक कुछ नहीं बोला। बस उस नवजात की काली, स्थिर और नीरव आँखों में देखता रहा —जैसे उनमें कुछ पढ़ रहा हो…जैसे समय की रेखाएँ उसके सामने खुल रही हों।
भीड़ बेचैन हुई। तभी…“ये बच्चा मेरा उत्तराधिकारी है। ये कोई अमंगल नहीं… ये बदलाव है। इसे मैं पालूँगा… इसे मैं प्रशिक्षित करूँगा। और एक दिन… ये इस दुनिया की दिशा तय करेगा।”
गाँव वालों में खलबली मच गई। कुछ लोग बोले, “तू इसे अपने पास क्यों रख रहा है? व्रणक, तू तांत्रिक है — इसे दानव मत बना! ऐसे बच्चों से तबाही आती है!”
लेकिन व्रणक ने सबकी ओर पीठ की, बच्चे को आकाश की ओर उठाया। “इसका नाम होगा — कृशांत। क्योंकि ये अंधकार में जन्मा है…और अंधकार ही इसका मार्ग होगा।”
उस पल हवा फिर तेज़ चली —जैसे खुद प्रकृति ने उसके नाम को सुन लिया हो।पेड़ झुक गए,पंछी एक झटके में उड़ गए।और बच्चे की आँखें… पहली बार हल्के से चमकीं।
शमशानपुर के किसी कोने में अगर कोई नाम कानों में पड़ता था…जिससे बच्चे छिप जाते, और बूढ़े सिर पर राख डाल लेते, तो वो था — "कृशांत"। वो कभी किसी के साथ खेलता नहीं था। और ना कोई उसके पास आता। गाँव के बच्चे जब तालाब में खेलते, तो कृशांत अकेले जंगल की ओर चल देता —चुपचाप। गायें और कुत्ते तक, जब उसे पास आता देखते, पीछे हट जाते — जैसे कुछ अनदेखा दबाव उन्हें रोक रहा हो।
गाँव की औरतें जब पानी भरने जातीं, और अगर कृशांत रास्ते में दिख जाता, तो वे अपना पल्लू मुँह पर रख लेतीं, और बिना पीछे देखे तेज़ी से निकल जातीं।
लेकिन…कृशांत डरता नहीं था। वो सिर्फ व्रणक की बात सुनता। सभी से दूर, वो घंटों तंत्र-साधना में बैठा रहता —कभी समाधि जैसी स्थिति में, तो कभी मंत्रों के बीच काँपते शरीर के साथ। हर अमावस्या की रात, जब पूरा गाँव अपने घरों में दुबक कर बैठता, तो वो अकेला जंगल की गहराइयों में चला जाता।
जहाँ वह बैठता था — वहाँ दीये खुद जलते थे, और पेड़ हिलना बंद कर देते थे।
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जब कृशांत 7 साल का हुआ तब एक दिन…दोपहर की धूप हल्की हो चुकी थी। मंदिर के पास व्रणक अपने तंत्र यंत्रों को साफ कर रहा था। कृशांत पास बैठा था — शांत, पर विचारों में डूबा हुआ। कुछ देर बाद उसने धीमे स्वर में पूछा: “बाबा… मेरे अंदर कुछ अजीब है…” व्रणक ने काम रोक दिया। उसने सिर घुमाकर उसकी तरफ़ देखा। “जब मैं गुस्सा होता हूँ…तो हवा गरम हो जाती है…और… और कभी-कभी…मैं लोगों की बातें सुन सकता हूँ —उनके मुँह खुले बिना…”
कुछ क्षणों के लिए दोनों के बीच सन्नाटा पसर गया। व्रणक ने उसकी आँखों में गहराई से देखा —उन आँखों में अब बचपन नहीं था। कुछ और था, कुछ "दूसरी दुनिया का"।
व्रणक धीरे से बोला:“तू अब बच्चा नहीं रहा कृश…तेरे अंदर वो शक्तियाँ हैं…जो मैंने तुझे नहीं दी…ये तुझे उस दुनिया से मिली हैं…जहाँ तेरा असली जन्म हुआ था।”
कृशांत का चेहरा धीरे-धीरे भावहीन हो गया। वो फुसफुसाया: "तो मैं इंसान नहीं हूँ…?" व्रणक की साँस भारी हो गई। वो कुछ क्षण चुप रहा…फिर घुटनों पर बैठकर कृशांत के सिर पर हाथ रखते हुए बोला: “नहीं बेटा…तू सिर्फ इंसान नहीं है। तू वो है जिसे देवताओं ने त्यागा…और जिसे तंत्र ने अपनाया। तेरे खून में वो लकीर है जो न ज़मीन से जुड़ती है, न स्वर्ग से…तेरी आत्मा उस गूंज का टुकड़ा है जो नरक के द्वार पर चीख बनकर बैठी है।”
कृशांत चुपचाप उठ खड़ा होता है। उसकी पीठ सीधी है, और चेहरे पर अब मासूमियत नहीं —बल्कि एक स्पष्ट सवाल है: “तो मैं क्यों जन्मा, बाबा?” व्रणक सिर्फ़ एक चीज़ कहता है: “शायद… इस दुनिया को बदलने नहीं, बल्कि उसकी कीमत तय करने।”
दूसरी तरफ शमशानपुर — अमावस्या की वो रात…पूरा गाँव जैसे साँस रोककर जी रहा था। चारों ओर अंधेरा, सिर्फ कुछ दीये झिलमिला रहे थे — वो भी घरों के भीतर। कृशांत उस दिन भी अकेला निकला था। जैसे हर अमावस को निकलता था —जंगल की ओर… अपने मौन अभ्यास में डूबा हुआ।
किसी को नहीं पता था कि वो कहाँ जाता है। कोई पूछता भी नहीं था। लेकिन उस रात…कुछ बदल गया।
अगली सुबह…गाँव के कुएँ के पास चीख-पुकार मच गई। एक औरत की चिल्लाहट ने पूरे गाँव को जगा दिया: “लाश… कुएँ में लाश है!” लोग दौड़े। कुएँ के पास भीड़ जमा हो गई।रस्सियों से एक लड़के की लाश बाहर निकाली गई। उम्र — लगभग 10 साल। चेहरा सफेद, आँखें चौड़ी और फटी हुई — जैसे मरते वक्त किसी अकल्पनीय डर को देखा हो। गर्दन पर एक चीज़ ने सबका ध्यान खींचा — एक काला धागा…जिस पर ताम्बे का तंत्र यंत्र लटक रहा था। ठीक वैसा… जैसा व्रणक पहनता था। भीड़ में हलचल हुई। कुछ ही पलों में फुसफुसाहटें फन उठाने लगीं: “ये… व्रणक का धागा है…फिर ये लड़के के पास कैसे आया? कृशांत ही था जो रात को बाहर गया था…और लाश की आँखें देखी?… बिलकुल उसकी जैसी काली थीं!” गाँव में धीरे-धीरे डर, शक और गुस्सा मिलकर जहर बन गए।
पंचायत बुलाई गई, गाँव का चौपाल भर गया। व्रणक भी वहाँ खड़ा था —शांत, पर उसकी आँखों में चिन्ता छिपी नहीं थी।गाँव के लोग चीख रहे थे: “व्रणक! तेरा शिष्य… नरभक्षी है! ये बच्चा नहीं… राक्षस है! आज लाश मिली है, कल हमारा कोई और बच्चा मरेगा!” गाँव का प्रधान गुस्से में काँपता हुआ बोला: “व्रणक, जवाब दो! क्या कृशांत उस रात जंगल में था?”
व्रणक ने नज़रें झुकाईं… फिर बोला: “हाँ, वो जंगल गया था लेकिन उसने किसी को नहीं मारा। तुम जिस धागे की बात कर रहे हो, वो तो मैंने महीनों पहले खो दिया था।”
भीड़ चिल्लाई: “झूठ! धागा गया, लाश आई, बच्चा बाहर गया — ये संयोग नहीं हो सकता!” उधर दूसरी तरफ— कृशांत अकेला बैठा था…पुराने मंदिर के पीछे, जहाँ कोई नहीं जाता।वो चुपचाप ज़मीन पर बैठा था —उसकी आँखें बंद, और ललाट पर पसीना था। क्योंकि उस रात… जंगल में…उसे किसी की आवाज़ सुनाई दी थी। ना इंसान की, ना जानवर की। कुछ और… एक फुसफुसाहट… एक गूँज… जो उसके भीतर उतर गई थी। “कृशांत… तेरा रक्त शुद्ध नहीं है… तेरे भीतर जो सोया है… वो भूखा है। जिसने तुझे जन्म दिया… उसकी इच्छा अधूरी है। तू सिर्फ़ बचेगा नहीं… तू चुनेगा कि कौन बचेगा। तेरा पहला शिकार… वही होगा जो तुझे नीच कहेगा…”
कृशांत की साँसें तेज़ हो रही थीं। उसने अपनी हथेली देखी —वहाँ अब भी एक छोटा-सा निशान था… जैसे किसी के नाखून खुद उसके हाथ से निकले हों। वो कुछ नहीं बोलता। लेकिन वो जानता है…उस रात जो हुआ… वो कोई सपना नहीं था।और उस लड़के की मौत —शायद संयोग नहीं थी। उसकी आँखें धीरे से खुलती हैं —जो अब पूरी तरह काली थी, बिलकुल वैसी, जैसी लाश की थीं।
रात अब और गहरी हो चुकी थी,चाँद नहीं था। आकाश में सिर्फ़ काले बादल थे — और उनके पीछे… बस शून्य। कृशांत मंदिर के पीछे अकेला बैठा था। पत्थर की सीढ़ियों पर, घुटनों में मुँह दबाकर, चुपचाप। पास ही अग्निकुंड की बुझी हुई राख थी —जिससे अब भी कुछ साँस जैसी धुआँधार गर्मी उठ रही थी। हवा में अजीब-सी नमी और घुटन थी। एक ऐसी बेचैनी, जो किसी तूफान से पहले की खामोशी जैसी लगती थी।
तभी…उसके कानों में एक आवाज गूंजी ये कोई सामान्य आवाज़ नहीं थी —ना बाहरी, ना भीतर की सोच…बल्कि कुछ ऐसा जो सीधा उसकी आत्मा में उतरा हो।
“कृश…तू तैयार हो रहा है…” कृशांत ने चौंककर सिर उठाया।आसपास देखा… कोई नहीं था। फिर से वही आवाज गूंजने लगीं, “तेरा जन्म किसी माँ ने नहीं…किसी शक्ति ने किया है…” अब उसकी साँसें तेज़ हो गईं। उसके हाथ काँपने लगे। “तेरा मार्ग शुरू हो चुका है…” आवाज़ कोई "शब्द" नहीं बोल रही थी —बल्कि भाव भेज रही थी…जैसे वो हर शब्द कृशांत की नसों में दौड़ता चला जा रहा हो। उसके माथे पर पसीना जमा हो गया। हवा रुक सी गई। और मंदिर की टूटी घंटी खुद-ब-खुद धीरे-धीरे हिलने लगी… बिना किसी स्पर्श के।
उसने खुद से पूछा —पहले धीमे स्वर में, फिर धीरे-धीरे बड़बड़ाते हुए: "क्या मैं… वाकई इंसान नहीं हूँ?" वो खड़ा हो गया। झाड़ियों में पैर रखा —और ज़मीन की नमी उसके तलवों को जकड़ने लगी। उसकी आँखों के आगे से कुछ दृश्य गुज़रने लगे —उसकी माँ की आखिरी साँस…व्रणक का धागा…वो मरी हुई लाश…गाँव वालों की आवाजें… “ये बच्चा नहीं… राक्षस है… अगर नहीं… तो मैं क्या हूँ?" उसकी आँखें फिर काली होने लगीं। साँसें तेज़ हो गई। उसकी हथेलियाँ काँप रही थीं — और अब उंगलियों से हल्की गर्म भाप निकल रही थी। एक पल को, उसके चारों ओर की छायाएँ लंबी होने लगीं…जैसे किसी ने सूर्य को निगल लिया हो।
आवाज़ फिर गूंजी — लेकिन अब बहुत करीब से: “तू नरक से आया है कृशांत… लेकिन तेरा गंतव्य सिर्फ़ नरक नहीं… पूरी दुनिया है।”
उसने आँखें बंद कीं…और पहली बार — कृशांत ने खुद से डर महसूस किया। लेकिन वो डरा नहीं…बस… चुपचाप खड़ा रहा।
पीछे मंदिर की घंटी पूरी ताक़त से खुद-ब-खुद बज उठी। "टनन्न्न्न्न्न्नं!!!"
और उस आवाज़ के बीच, व्रणक धीरे-धीरे मंदिर के द्वार से प्रकट हुआ। वो जानता था —उसका शिष्य अब पहली बार जाग चुका है।
🔥 क्या आपने खुद से कभी पूछा है — "मैं कौन हूँ?"
कृशांत ने पूछा… और जवाब मिला अंधकार से।
अब उसकी साधना शुरू होने वाली है — अगला भाग मिस मत करना!
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यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक और फिक्शनल है। इसमें वर्णित तांत्रिक क्रियाएँ, शक्तियाँ या धार्मिक संदर्भ किसी भी वास्तविक धर्म, पंथ या आस्था का अपमान नहीं करते।
"नरकवंश – अमावस का उत्तराधिकारी" एक हॉरर फिक्शन सीरीज़ है जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन और रोमांच पैदा करना है।
कृपया इसे यथार्थ से जोड़कर न देखें।

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