अल्केमी मास्टर की वापसी: नीलकुण्ड नगरी और नागवंश की चाल
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“वेदांत! वेदांत!...”
धीरे-धीरे होश में आता वेदांत आँखें मसलता हुआ उठ बैठा। उसे समझ ही नहीं आया कि कौन ऐसा दुस्साहसी है जो एक ‘संजीवनी तपस्वी’ से इस तरह चिल्लाकर बात कर रहा है?
लेकिन जैसे ही उसने सामने देखा — उसकी नज़र एक सुंदर और नाराज़ चेहरे पर पड़ी।
उस स्त्री का चेहरा चाँदी सी उजली त्वचा लिए था, धनुषाकार भौंहें, मोती जैसी आँखें, तीखी राजसी नाक, रक्तवर्ण होंठ, और मोतियों जैसे दाँत। उसके लंबे काले बाल रेशमी झरने जैसे उसकी पीठ पर बहे जा रहे थे।
“बा…बड़ी बहन?”
उस चेहरे को देखकर वेदांत का मन अतीत के धुंधले चित्रों में खो गया, और थोड़े संकोच के बाद उसने कहा।
“हूँफ!” – उस स्त्री ने उसकी ओर गुस्से से देखा और कहा,
“मैंने कहा था यज्ञ अग्नि पर ध्यान रखना, और तूने उसे बुझा डाला? देख क्या कर दिया तूने!”
“हं?”
वेदांत ने चारों ओर देखा — सामने अग्निकुंड बुझ चुका था और पास की दीवारों पर औषधियों की कतारें सजी हुई थीं...
वो पूरा दृश्य… और सामने खड़ी वो कन्या…
उसके हृदय की खो चुकी यादों को जैसे किसी मंत्र ने फिर से जगा दिया।
"क्या... क्या मैं सच में तेरह हज़ार वर्ष पहले लौट आया हूँ... जब मेरी उम्र केवल 16 वर्ष थी?"
उसे याद आने लगा कि उस काल में उसके माता-पिता उसे "ऋषि कुल" में लेकर आए थे।
पिता वहाँ एक योद्धा-रक्षक थे और माता अन्य स्त्रियों के साथ कसीदाकारी करती थीं।
और वह स्वयं…
अपनी चतुर बुद्धि के कारण, औषधीय यज्ञों में एक शिष्य के रूप में प्रवेश पा गया था।
सामने खड़ी कन्या…
जिसे वो हृदय से पूजता था, वो थी ऋषिकुल के अधिपति ऋषि औत्यायन की कनिष्ठ पुत्री —
साध्वी मिहिरा।
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"वेदांत और मिहिरा"
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लेकिन उस समय का वेदांत आत्मविश्वासहीन था।
वो अपने हृदय की भावनाओं को साध्वी मिहिरा के सामने प्रकट करने का साहस नहीं कर पाया।
आख़िर वो तो एक साधारण रक्षक पुत्र था… और मिहिरा ऋषिकुल के अधिपति की कनिष्ठ पुत्री —
उनके बीच का अंतर स्वर्ग और पृथ्वी जितना था।
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एक वर्ष पश्चात, ऋषिकुल को नीलकुण्ड नगरी छोड़नी पड़ी।
परंतु उनकी वापसी यात्रा में, शत्रु कुलों ने उन पर आक्रमण कर दिया।
सम्पूर्ण ऋषिकुल का नाश हो गया… और वेदांत के माता-पिता भी उसमें स्वाहा हो गए।
उसके पिता ने अंतिम समय में वेदांत को संगंधा नदी में फेंका,
जहाँ बहते हुए वह अपने ही सगे-संबंधियों को तड़प-तड़प कर मरते हुए देखता रहा...
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परंतु, उसी तबाही के बाद उसकी संजीवनी विद्या में छिपी प्रतिभा जागृत हुई।
विभिन्न तप, यात्राएँ, और गुरुओं की कृपा से…
वेदांत एक दिन बना — इस धरती का परम संजीवनी सम्राट!
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“क्या तुझे पता है कि तेरी इस गलती से कितनी औषधियाँ नष्ट हो गईं?”
साध्वी मिहिरा की कर्कश पुकार ने वेदांत को अतीत की यादों से झकझोर कर बाहर निकाला।
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वैसे तो मिहिरा, वेदांत को एक चतुर, संस्कारी और प्रिय अनुज के रूप में देखती थी…
पर इन दिनों ऋषिकुल संकट में था।
उनके समक्ष ही, नागवंश की औषधि सभा ने 'अग्निशक्ति औषधि' नामक दवा प्रस्तुत की थी,
जो मिहिरा की औषधियों से अधिक प्रभावकारी सिद्ध हो रही थी।
ऋषिकुल की प्रतिष्ठा गिरती जा रही थी, और उसका दबाव अब मिहिरा पर स्पष्ट दिख रहा था।
और अब, वेदांत ने एक पूरा अग्निकुंड औषधियों से भरकर जला दिया था — स्थिति और भी बिगड़ गई।
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वेदांत ने अपने भीतर उठते भावों को दबाया…
क्योंकि उसका मन मिहिरा को अपने सीने से लगाने का कर रहा था।
परंतु वह शांत रहा, और अग्निकुंड का ढक्कन खोला।
अंदर बचे हुए औषधीय अवशेषों को उसने उँगलियों से उठाया,
नाक से लगाकर गंध ली और मन ही मन बुदबुदाया —
“यह तो प्राण-ऊर्जा संजीवनी बनाने का प्रयास था…”
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ऋषिकुल यद्यपि औषधियों का केन्द्र था,
फिर भी वहाँ केवल साधारण संजीवनी रस ही बनाए जाते थे।
सच्चे संजीवनी सूत्र तो केवल वही साधक बना सकते थे,
जिन्हें संसार संजीवनी तपस्वी कहकर पूजता था।
और ऐसे अस्तित्व पूरे नीलकुण्ड नगरी में केवल कुछ ही थे —
वे सभी उच्च कुलों के पूज्य गुरु थे।
"भस्म में छिपी संजीवनी"
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“ये पूरा अग्निकुंड सात रजत मुद्रा के औषधीय घटकों से भरा था।”
मिहिरा की आँखों में दुःख झलक रहा था।
“इनसे हम दस बोतल ‘प्राणशक्ति रसायन’ तैयार कर सकते थे, जिनकी कुल कीमत दस रजत मुद्रा होती... और वही हमारे औषधि-गृह की एक दिन की पूरी आय होती!”
उसने क्रोधित होते हुए कहा:
“अब तो नागवंश हमारे नाम को रौंदता जा रहा है। हमारी औषधियाँ कोई खरीदना भी नहीं चाहता...”
और फिर उसने अग्निकुंड के तल में जले हुए अवशेषों की ओर देखा — उसका चेहरा दर्द से भर उठा।
उसकी आँखों में आँसू छलकने लगे।
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[नागवंश!]
वेदांत की आँखों में एक ठंडी चमक उभरी।
उसी कुल ने ऋषिकुल को तबाही की ओर धकेला था —
और वही त्रासदी आगे चलकर उसके जीवन की सबसे गहरी छाया बन गई थी।
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“रुको… इसे मत फेंको।”
जब मिहिरा भस्म को बाहर फेंकने जा रही थी, वेदांत ने हाथ बढ़ाकर उसे रोका।
उसके चेहरे पर हल्की रहस्यमयी मुस्कान थी।
“बड़ी बहन… ये भस्म नहीं, धन है। इसे फेंकना मूर्खता होगी।”
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जहाँ साध्वी मिहिरा को ये जली हुई औषधियाँ बेकार लग रही थीं,
वहीं वेदांत की दृष्टि में वे अभी भी संजीवनी विद्या के लिए उपयोगी कच्चा तत्व थीं।
यद्यपि ये कुछ हद तक जल चुकी थीं,
परन्तु वेदांत जानता था —
यदि सिर्फ औषधीय रस निकालना हो, तो इनमें अभी भी जीवन शक्ति शेष है।
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संजीवनी का सबसे मूल और प्रारंभिक स्तर होता है रस-संयोजन,
जहाँ औषधियों के गुणों को खुली अग्नि में उबालकर निकाला जाता है।
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भले ही आधे से अधिक गुण जल गए थे,
परंतु जो थोड़े से गुण बचे थे —
वेदांत जैसे तपस्वी के लिए वे भी पर्याप्त थे।
उसने धीरे-धीरे भस्म की ऊपरी परतों को खुरच कर हटाया।
और फिर बगल के शेल्फ से कुछ और विशिष्ट औषधियाँ उठाईं —
उन्हें अपने हाथों में तौलकर अग्निकुंड में उसी भस्म के साथ डाल दिया।
अग्निपरीक्षा और चमत्कारी संजीवनी
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“तू यूँ ही अन्य औषधियाँ कैसे मिला सकता है!?”
मिहिरा ने क्रोधित होकर चिल्लाया और वेदांत की कलाई पकड़ने को आगे बढ़ी…
मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
उसने गुस्से से गाल फुला लिए और तमतमाते चेहरे से वेदांत को घूरने लगी।
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उसे भली-भांति पता था –
औषधीय रस के प्रभाव एक निश्चित रचना से ही मिलते हैं।
अगर उसमें अन्य औषधियाँ मिलाई जाती हैं, तो परिणाम अनिश्चित और खतरनाक हो सकता है।
कम से कम नुकसान होगा औषधि की शक्ति में गिरावट।
लेकिन ज्यादा हुआ तो अग्निकुंड फट भी सकता है।
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और यह अग्निकुंड कोई सामान्य नहीं था —
मनुष्य श्रेणी का निम्न-स्तरीय अग्निकुंड था, जिसकी कीमत हजार रजत मुद्रा से भी अधिक थी।
वेद मंत्रशास्त्र में,
एक उत्तम अग्निकुंड औषधियों की गुणवत्ता को एक नई ऊँचाई देता है।
जहाँ साधारण अग्निकुंड में प्रथम या द्वितीय श्रेणी की औषधि ही बन सकती है,
वहीं मनुष्य श्रेणी के अग्निकुंड में द्वितीय से तृतीय श्रेणी तक की औषधियाँ तैयार की जा सकती हैं।
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तृतीय श्रेणी की औषधि की कीमत द्वितीय की तुलना में कई गुना अधिक होती है।
यह अग्निकुंड ऋषिकुल की आय का सबसे बड़ा स्रोत था।
अगर यह नष्ट हो जाता, तो पूरा कुल आर्थिक संकट में डूब जाता।
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“बहन, चिंता मत करो...”
वेदांत मुस्कुराया।
“कल रात्रि मुझे एक वृद्ध तपस्वी मिले थे —
उन्होंने बताया कि इन विशेष औषधियों को मिलाकर प्राणशक्ति रसायन की प्रभावशीलता को और अधिक बढ़ाया जा सकता है।”
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यह कहते हुए वेदांत ने अग्नि में चारकोल डाला और अग्निकुंड को पुनः प्रज्वलित कर दिया।
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13,000 वर्षों की संजीवनी साधना के बाद वेदांत अब जो ज्ञान लेकर लौटा था,
वह इस युग से सैकड़ों गुना आगे था।
आज के समय में बनने वाला प्राणशक्ति रसायन पीने के बाद
पाँच मिनट में असर दिखाता था।
लेकिन वेदांत द्वारा मिश्रित नई रचना एक मिनट से भी कम समय में प्रभाव देती थी!
और यह शक्ति पुनः जागृति की गति को भी तीव्र कर देती थी।
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युद्ध के मैदान में तड़पते साधकों के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं था।
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वेदांत ने अग्निकुंड के किनारे पर धीरे से अपनी हथेली रखी —
और "आत्मदेव तंत्र" का आह्वान किया।
तुरंत ही उसके भीतर संचित आत्मिक ऊर्जा बाहर निकली और अग्निकुंड के जल में समाहित हो गई।
कुछ ही क्षणों में अग्निकुंड का जल उबालने लगा…
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एक मिनट बाद, वेदांत ने अग्निकुंड को सावधानी से उठाया,
बगल में रखी छोटी कांच की शीशियाँ उठाईं,
और अग्निकुंड में बनी प्रायः पारदर्शी औषधि को उसमें भरना शुरू किया।
पंद्रह शीशियाँ भर कर उसने उन्हें सावधानी से मिहिरा के सामने सजा दिया।
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“यह... ये कैसे संभव है!?”
मिहिरा अवाक रह गई।
उसने शीशियों में रखी औषधि को ध्यान से देखा —
वो एकदम पारदर्शी थी।
औषधियों की गुणवत्ता का निर्धारण किया जाता है
उसमें मौजूद अशुद्धियों की मात्रा से।
जितनी कम अशुद्धियाँ, उतनी उच्च गुणवत्ता।
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मिहिरा की आँखें फटी की फटी रह गईं।
इन शीशियों में अशुद्धियाँ नगण्य थीं।
मतलब यह कि —
इन औषधियों की शुद्धता कम से कम 50% से ऊपर थी!
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"नीलकुण्ड नगरी" की सबसे बड़ी औषधि मंडी में भी
उसने ऐसी औषधियाँ कभी नहीं देखीं थीं...
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यह कहानी पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें वर्णित पात्र, स्थान व घटनाएं लेखक की कल्पना पर आधारित हैं। इसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति, संस्था या समुदाय से कोई संबंध नहीं है। यदि कोई समानता मिलती है तो वह मात्र संयोग है।

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