प्रेतदृष्टि का प्रारंभ | कृशांत की शक्ति जागृति 


एक वृद्ध तांत्रिक व्रणक एक धुएँ से घिरे, सफेद आँखों वाले बालक कृशांत को शक्ति जागरण के लिए प्रेरित कर रहा है। पृष्ठभूमि में एक तेल का दीपक और अंधेरे वातावरण से रहस्य और भय का आभास होता है।
नरकवंश अध्याय 2 में कृशांत की ‘प्रेतदृष्टि’ शक्ति की पहली झलक।



कृशांत का जन्म हुए आज 12 वर्ष का हो गए हैं। आज रात शमशानपुर की हवा में कुछ ऐसा था, जो कहने के लिए शब्द कम थे... लेकिन महसूस करने के लिए काफी था।हर पेड़ की डाल धीरे-धीरे हिल रही थी, जैसे कोई अदृश्य आत्मा उनकी पत्तियों से फुसफुसा रही हो। गाँव में दूर कहीं एक कुत्ता रो रहा था – लंबी, धीमी, और डरी हुई आवाज़ में। हवा सर्द थी, लेकिन उस सर्दी में भी एक अजीब-सी घुटन थी – जैसे कोई पीछे खड़ा हो और साँसें रोक कर ताक रहा हो।

कृशांत अपनी खाट पर लेटा हुआ था। उसकी आँखें खुली थीं, लेकिन वो तांक नहीं रहा था… वो कुछ सुनने की कोशिश कर रहा था – कुछ जो हर रात उसके सपने में आता था।

उसने करवट ली, और फिर से उसी धुंधले, स्याह दृश्य को याद करने लगा… हर रात उसे वही सपना आता था। एक मैदान… नहीं, शायद शमशान…चारों ओर धुआँ… और उसके बीच अधजले, गलते चेहरे… उन चेहरों की आँखें नहीं थीं… उनके मुँह से सिर्फ़ चीखें निकलती थीं…

और उन्हीं चीखों के बीच एक अजीब गूँजती हुई आवाज़ आती थी, जो हर बार उसका नाम लेती थी—“कृशांत… अब तू देखेगा उन्हें… जो ज़िंदा नहीं बचे…”

कृशांत उस आवाज़ से डरता भी था… लेकिन अब डर से ज़्यादा सवाल उठते थे। "कौन हैं ये? क्यों दिखते हैं मुझे? क्या मैं पागल हो रहा हूँ?"

उसे नहीं पता था, लेकिन आज रात उसे अहसास हो गया था — कुछ तो है। कुछ ऐसा, जो अब बदल चुका है।

व्रणक – गाँव का अजीब बूढ़ा तांत्रिक। लंबी सफ़ेद दाढ़ी, पीली आँखें, और एक कोठरी जिसमें हमेशा धूप, राख और किसी पुराने समय की सुगंध तैरती रहती थी। लोग कहते थे – व्रणक पागल है। पर कृशांत जानता था – व्रणक क्या है।

कृशांत व्रणक की कोठरी में घुसा। अंदर हवा में धूप और जले हुए कपूर की महक घुली हुई थी। व्रणक ध्यान में बैठा था। उसका शरीर स्थिर था, पर उसके चारों ओर कोई अदृश्य ऊर्जा बह रही थी।

कृशांत धीरे-धीरे उसके पास गया और काँपती आवाज़ में बोला: “बाबा… मैं कुछ अजीब देखता हूँ… जब आँखें बंद करता हूँ तो… कुछ चेहरे… अधजले… डरावने…से।”

व्रणक ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। उनकी आँखों में गहराई थी… जैसे वो सब देख चुके हों जो आम लोग सोच भी नहीं सकते।एक क्षण के मौन के बाद उन्होंने धीरे से कहा: “वो तेरे सपने नहीं हैं, कृश… वो तेरी आत्मा की जागृति है। तेरा पहला स्तर प्रेतदृष्टि शुरू हो चुका है।” प्रेतदृष्टि वो शक्ति है जो सिर्फ़ कुछ चुने हुए लोगों को मिलती है…

कृशांत हक्का-बक्का रह गया।“प्रेतदृष्टि…? ये क्या है बाबा?”

व्रणक ने एक लंबी साँस ली, जैसे अतीत को छू रहे हों…"जब कोई आत्मा… पूर्वजों की वंश-रेखा से निकलकर उस रास्ते पर चलती है जिसे दुनिया नकार चुकी हो… तब वो धीरे-धीरे उस दृष्टि को प्राप्त करता है… जो जीवित और मृत दोनों को देख सकती है। तेरे सपनों में जो दिख रहा हैं… वो आत्माएँ नहीं, संदेशवाहक हैं। जो तुझे बुला रहे हैं… तेरे रास्ते पर ले जाने के लिए। कृश… तू साधारण नहीं है। तेरा रक्त — नरकवंश का है। और प्रेतदृष्टि… तेरा पहला चिह्न है।"

एक अनोखी सच्चाई सामने थी…कृशांत की आँखों में आँसू आ गए। डर से नहीं… बल्कि उस भार से, जो उसे विरासत में मिला था।“पर बाबा… मैं क्या करूँ…? मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा…”

व्रणक ने अपना कमंडल उठाया, और उसमें से कुछ राख निकाली।"अपनी दोनों आँखें बंद कर।"

कृशांत ने वैसा ही किया। व्रणक ने धीरे-धीरे वो राख उसकी बंद आँखों पर लगाई… और कुछ मंत्र बुदबुदाए…तभी कृशांत को कुछ दिखाई देने लगा…लेकिन अब सपना नहीं था…चारों ओर अंधेरा था…बीच में एक विशाल अग्निकुंड जल रहा था…और उसके चारों ओर काले वस्त्रों में लिपटी आकृतियाँ मंत्र पढ़ रही थीं…

उनमें से एक आकृति उसकी ओर मुड़ी… उसकी आँखें नहीं थीं…उनकी जगह सिर्फ़ दो जलती हुई गुफ़ाएँ थीं…

और वो बोली: “वक्त आ गया है, कृशांत… अब पहले स्तर दरवाज़ा खोल…”

कृशांत ने झटके से आँखें खोलीं। उसकी साँसें तेज़ थीं, माथा पसीने से भीगा हुआ…लेकिन इस बार… उसे डर नहीं लग रहा था। अब उसके भीतर कुछ और था…जैसे कोई शक्ति उसकी आँखों के पीछे साँस ले रही हो। जैसे अब वो सिर्फ़ देख नहीं रहा… महसूस भी कर रहा था।

व्रणक मुस्कराया।"अब तू देखेगा उन्हें… जो ज़िंदा नहीं बचे… लेकिन गए भी नहीं। अब तुझे हर जवाब मिलेगा… पर हर जवाब के साथ… एक कीमत भी देनी होगी।"

कोठरी के भीतर धूप और जले हुए नीम के पत्तों की गंध अब और गाढ़ी हो गई थी। व्रणक धीरे-धीरे खड़ा हुआ, लकड़ी की छड़ी पर भार डालकर। उसकी चाल में उम्र का झुकाव था, लेकिन आँखों में वो तेज़ था जो किसी योद्धा के अंतिम युद्ध में दिखता है।

कृशांत अब तक चुप खड़ा था। उसके मन में जैसे तूफान उठ रहा हो। उसने काँपती आवाज़ में पूछा: "स्तर...? ये क्या होता है, बाबा?"

 व्रणक मुस्कराया… लेकिन वो मुस्कान सहज नहीं थी। उसमें एक चेतावनी छिपी थी। वो धीरे से बोला: "हर तांत्रिक साधक के भीतर शक्ति के कई ‘स्तर’ होते हैं, कृश… जैसे कोई मंदिर की सीढ़ियाँ… हर एक ऊँचाई पर नया द्वार होता है… एक नई परीक्षा… एक नई पीड़ा। पर तुझमें ये स्तर बिना किसी जप-तप के जाग रहे हैं। ये कोई साधारण बात नहीं। ये तेरा जन्मसिद्ध अधिकार है — नरकवंश का वरदान… या शाप।”

कृशांत की साँसें तेज़ हो गईं। वो समझ नहीं पा रहा था कि ये वरदान है या विनाश की शुरुआत। "मतलब… मुझमें जो बदलाव हो रहा है… वो मैंने माँगा नहीं… फिर भी हो रहा है?"

व्रणक ने गहरी साँस ली और अपनी आँखें उसकी आँखों में डालीं — सीधी, गंभीर और निर्विकार। "हर शक्ति… एक मूल्य माँगती है, कृशांत। और तेरा पहला मूल्य होगा — तेरा डर।

तुझे उसे छोड़ना होगा, निगलना होगा… तभी तू अगले स्तर पर जा पायेगा।”

व्रणक अब कोठरी के बीचोंबीच खड़ा हो चुका था। उसने दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए, और दीवार पर टंगे मृगचर्म को नीचे उतारा, उस पर कुछ प्राचीन प्रतीक बने हुए थे।

 "प्रेतदृष्टि… पहला स्तर है उस राह का… जहाँ तू देखने लगेगा उन्हें… जो ज़िंदा नहीं बचे। अब तू उन आत्माओं को देख सकेगा जो दूसरों को नहीं दिखतीं। पर जितना तू देखेगा… उतना बर्दाश्त करना भी सीखना होगा।"

कृशांत ने धीमे स्वर में पूछा: "क्या… ये डरावना होगा?"

व्रणक की आँखें कुछ पल के लिए बुझीं…जैसे वो किसी पुराने दृश्य को याद कर रहे हों — शायद अपने पहले स्तर की यात्रा को… "डरावना? कभी नहीं सोचा था कोई बालक मुझसे इतना सीधा सवाल पूछेगा… हाँ, कृश… ये डरावना होगा।

क्योंकि तू अब उन आत्माओं से बातें करेगा, जिनके मुँह नहीं बचे… तू उनकी पीड़ा सुनेगा, जिनकी चीखें दुनिया ने कभी नहीं सुनीं। पर तू भागेगा नहीं… क्योंकि तेरे अंदर अंधेरे से लड़ने की नहीं… उसे समझने और अपनाने की क्षमता है। और वही तुझे बाकी सबसे अलग बनाता है।"

कृशांत अब दीवार की ओर देख रहा था, जहाँ राख से बनी आकृतियाँ धीरे-धीरे बदल रही थीं — जैसे कोई उन्हें देख रहा हो… या वो खुद देख रही हों। उसके अंदर एक सिहरन उठी।लेकिन इस बार डर नहीं था… बल्कि एक अजीब-सी स्वीकारोक्ति थी। "अगर यही मेरा रास्ता है… तो मैं तैयार हूँ।"

व्रणक मुस्कराया।"अच्छा… तो अगला कदम तुझे खुद ही उठाना होगा…"

उस रात कुछ अलग था। आसमान बादलों से ढका था, पर चाँद फिर भी किसी तरह झाँक रहा था — जैसे उसे भी जानना था कि आज रात क्या होने वाला है।

कृशांत को नींद नहीं आ रही थी। वो झोपड़ी में करवटें बदलता रहा… फिर उसे अचानक एक अनजाना सा खिंचाव महसूस हुआ… जैसे किसी ने उसकी आत्मा की डोरी पकड़कर खींची हो। वो चुपचाप उठा। दरवाज़ा खोला… हवा अब सामान्य नहीं थी बल्कि बोझिल और भारी थी।

गाँव के एक कोने में वो पुरानी बावड़ी थी — जहाँ बरसों पहले एक बच्चा गिर गया था… और उसकी लाश हफ्तों बाद मिली थी। लोग कहते थे — वो जगह अब अशुद्ध है। पर आज वही बावड़ी कृशांत को बुला रही थी। हर कदम पर ज़मीन ठंडी लगने लगी थी। पेड़ों की छायाएँ अब सीधी नहीं, मुड़ी-तुड़ी थीं।और हवा… अब कानों में किसी और भाषा में…कुछ कहने लगी थी… 

कृशांत धीरे-धीरे बावड़ी के पास पहुँचा… और तभी — कृशांत का दिल रुक गया। बावड़ी के किनारे खड़ा था — वही बच्चा।जिसकी लाश उसी कुएँ में पाई गई थी। अब वो खड़ा था — उसका शरीर अधमरा, गाल पिचके हुए, और आँखें पूरी तरह काली… जैसे रौशनी ने भी उसका साथ छोड़ दिया हो। उसके होंठ हिल रहे थे… बहुत धीमे…और आवाज़… धुंधली, पर साफ़: "तू देख सकता है...?"

कृशांत काँप गया। उसने जवाब में कहा "तू… तुझे तो मर जाना चाहिए था…"

साया मुस्कराया… पर वो मुस्कान डरावनी थी। फटी होंठों से निकली आवाज़ ने उसकी रीढ़ में बर्फ़ भर दी: "मैं मरा हूँ… पर मेरा डर… अभी भी ज़िंदा है… अब तुझे वही देखना होगा… जो मुझे दिखाया गया था…"

और तभी कृशांत की आँखें अचानक पूरी सफ़ेद हो गईं।

कोई और होता तो उसे मृत समझता। वो वहीं बावड़ी के पास गिर पड़ा। पर अंदर… उसकी आत्मा अब किसी और आयाम में थी…

पहला दृश्य जो उसने देखा – नरक की एक झलक, वो उसकी आत्मा को झकझोर गया। चारों ओर कालिमा थी…और एक बड़ा यज्ञ मंडल… जिसमें लहू से खींचे गए मंत्र थे। अग्निकुंड की लपटों में दिख रही थी उसकी माँ — चीखती हुई, और बाँधी गई… चारों ओर अजीब मंत्रों की गूँज थी जैसे खुद शब्द दर्द से कराह रहे हों। और फिर…

वो तांत्रिक दिखाई दिया। उसका चेहरा ढँका हुआ था, आँखें नहीं थी उनकी जगह दो जलती गुफ़ाएँ थी। उसने सिर उठाकर कहा: “इस श्राप का उत्तराधिकारी जागेगा…और तब नरक का द्वार खुलेगा… इस धरती पर…”

और अगले ही क्षण —आग की लपटें भभकीं… और पूरा दृश्य राख बन गया।

कृशांत ने अचानक आँखें खोलीं। वो अब भी ज़मीन पर पड़ा था — ठंडा पसीना उसकी गर्दन से बह रहा था। उसकी साँसें तेज़… पर ज़िंदा थी। वो साया अब वहां नहीं था। पर बावड़ी के किनारे एक राख की हथेली की छाप रह गई थी —मानो किसी ने उसे छूकर कुछ सौंपा हो…

कृशांत ज़मीन पर पड़ा था। उसकी पलकों में कंपन हो रही थी। हवा एकदम शांत… लेकिन उसकी देह से धुएँ की लकीरें उठ रही थीं — काली, भाप जैसी… जो किसी आत्मा के निकलने जैसी लग रही थीं। हवा में एक अजीब सी गंध थी — जली हुई राख और अंधेरे की। पेड़ो में पत्ते सन्न थे। पक्षी भी चुप थे।

तभी— झोंपड़ी से व्रणक चीखते हुए बाहर निकला। “कृशांत!” वो उसकी ओर लपका, झुककर उसे पकड़ लिया। "क्या देखा तूने? किस आत्मा ने संपर्क किया?"

कृशांत अब धीरे-धीरे होश में आ रहा था। उसकी साँस तेज़ थी, लेकिन उसकी आँखें अब बदल चुकी थीं… उनमें डर नहीं… बल्कि कुछ जानने की आग थी।

“बाबा… वो बच्चा… जिसने कुएँ में जान दी थी… वो मुझे दिखा गया कुछ… एक यज्ञ… जिसमें मेरी माँ थी… और… एक नकाबपोश तांत्रिक… जिसने मेरा नाम पुकारा था..."

व्रणक एकदम शांत हो गया। वो अब कृशांत को घूर नहीं रहा था… बल्कि किसी पुरानी भविष्यवाणी को याद कर रहा था।उसकी आँखें बंद हो गईं, और होंठ फुसफुसाए: “शायद वक़्त आ गया है…”

वो उठा। धीरे-धीरे अपनी कोठरी की ओर बढ़ा। भीतर गया… और एक क्षण बाद बाहर आया —उसके हाथ में एक पुरानी, काली, चमड़े से लिपटी हुई पोथी थी।

वो पोथी कोई साधारण किताब नहीं थी। उसके किनारों पर भस्म से बने चिह्न थे। और उसकी गांठ माँसपेशियों की नसों जैसी कोई चीज़ थी — मानो वो अभी भी साँस ले रही हो…

व्रणक ने पोथी कृशांत के सामने रखी। “इस पोथी में छिपे हैं तेरे अगले चरण… तेरे ‘शक्ति-स्तर’। हर पन्ना एक दहलीज़ है।लेकिन इसे खोलने से पहले, तुझे खुद से एक सवाल पूछना होगा।”

व्रणक अब उसकी आँखों में सीधे देख रहा था। उसका स्वर अब दार्शनिक नहीं… निर्दोष चुभन से भरा था। "क्या तू डर से जीना चाहता है…? ...या फिर डर बनकर उठना चाहता है?"

कृशांत चुप था। उसके सामने पोथी थी… उसके भीतर रहस्य, दर्द, युद्ध और शायद मुक्ति थी… पर साथ ही… शायद स्वयं मृत्यु भी।

कृशांत ने पोथी की ओर हाथ बढ़ाया। उसके हाथ कांपे… पर रुके नहीं। उसने गांठ को छुआ…और उसी पल पोथी हल्की-सी काँपी… जैसे किसी अनदेखी शक्ति ने उसे पहचान लिया हो। धुएँ की एक और लहर उसके कंधे से उठी… और हवा में कुछ लिखा गया — “प्रथम जागरण – स्वीकृत”।



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१. नरकवंश अध्याय १: वो पहली आवाज़ – कृशांत कौन है? 


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३. अल्केमी मास्टर की वापसी






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❗ डिस्क्लेमर




यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक और फिक्शनल है। इसमें वर्णित तांत्रिक क्रियाएँ, शक्तियाँ या धार्मिक संदर्भ किसी भी वास्तविक धर्म, पंथ या आस्था का अपमान नहीं करते।


"नरकवंश – अमावस का उत्तराधिकारी" एक हॉरर फिक्शन सीरीज़ है जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन और रोमांच पैदा करना है।


कृपया इसे यथार्थ से जोड़कर न देखें।