कलम से क़त्ल - एक रहस्यमयी मर्डर मिस्ट्री | RuhRahasya
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| “कलम से क़त्ल” — एक लेखक की कल्पना जब असल हत्याओं में बदलने लगे, तो कहानी नहीं रह जाती… क़त्लनामा बन जाती है। |
"जिसे मैं कल्पना समझता रहा... वो हक़ीक़त बनती जा रही थी।"
स्थान: इलाहाबाद
मौसम: ठंडी जनवरी की साँझ, हवा में घुला कोहरा — जैसे कुछ छुपाने की कोशिश में हो।
शहर की हर गली जैसे किसी अदृश्य चादर में लिपटी हुई थी। स्ट्रीट लाइट्स पीली रोशनी में धुंध को चीरने की नाकाम कोशिश कर रही थीं। उसी कोहरे के बीच, शहर के एक शांत कोने में था "शिवा एन्क्लेव टावर बी" — और उसी की पाँचवीं मंज़िल पर एक अकेला फ्लैट, नंबर 504 — अयान सिंह का ठिकाना।
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अयान — उम्र 32, लंबी कद-काठी, बिखरे बाल, थका चेहरा और गहराते काले घेरे — एक क्राइम नॉवेलिस्ट, जिसकी कहानियाँ लाखों लोग पढ़ते थे... पर जिसे अब खुद समझ नहीं आ रहा था कि वो कल्पना कर रहा है या उसे जी रहा है।
पिछले छह महीनों से अयान की दुनिया सिर्फ चार दीवारों तक सिमट गई थी — और उनके बीच थे उसके कल्पनाओं के हत्यारे, पुलिस अफसर, झूठे अलिबाई, और एक ऐसा सच... जो अब डराने लगा था।
कमरे में हल्की सी रोशनी थी, एक टेबल लैम्प जल रहा था — ठीक उसी के नीचे उसका लैपटॉप खुला था।
स्क्रीन पर टाइटल चमक रहा था: "हत्या की कहानी" (Draft-5)
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टेबल पर बिखरे अखबार, नोट्स, कॉफी मग, और सामने दीवार पर लगे पोस्टर जिन पर अयान ने लाल मार्कर से लिखा था:
"क़ातिल हमेशा पास होता है…"
"हर झूठ के पीछे एक अधूरा सच छुपा होता है…"
"7:47 — समय जब सब बदलता है।"
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अयान ने गहरी साँस ली, उँगलियाँ कीबोर्ड पर रखीं और धीरे से लिखा:
“शाम 7:47 पर वो मरा पाया गया… उसकी गर्दन ज़मीन से अलग थी।”
उसे अपने ही शब्दों में एक अजीब-सी सिहरन महसूस हुई।ठीक उसी पल... मोबाइल की रिंगटोन गूँजी। अचानक आया कॉल, अयान चौंका।
स्क्रीन पर नाम चमक रहा था — इंस्पेक्टर अरुण तिवारी.
फोन उठाते ही दूसरी तरफ से कड़कदार आवाज़ आई:
"तुमने आज का अख़बार देखा?"
अयान: "नहीं… क्या हुआ?"
तिवारी: "तुम्हारी किताब की लाइन जैसी ही एक हत्या कल रात को हुई है। वही समय… वही हालत…"
अयान का चेहरा सख्त हो गया। उसने काँपते होंठों से कहा, "आप मज़ाक तो नहीं कर रहे?"
तिवारी: "मैं मरे हुए लोगों को लेकर मज़ाक नहीं करता, अयान। फ्लैट 203, शिवा अपार्टमेंट। एक लड़का मिला है —गर्दन धड़ से अलग। वक़्त — शाम 7:47।"
अयान के कानों में जैसे कुछ फट गया। फोन कट चुका था… पर तिवारी की आवाज़ जैसे दीवारों पर गूँज रही थी।
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वो तुरंत उठा, अलमारी खोली, अखबार निकालने लगा। हाथ काँप रहे थे।
एक लिफ़ाफे में लिपटा था आज का "प्रयाग टाइम्स"।
पहला ही पन्ना… एक बड़ी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर।
हेडलाइन: "शिवा अपार्टमेंट में सनसनीखेज़ हत्या — गर्दन कटी लाश मिली, समय 7:47 PM"
फ्लैट नंबर: 203
पीड़ित: युवक, उम्र 28, नाम गोपनीय रखा गया।
स्थिति: लाश फर्श पर थी, गर्दन कटकर पास पड़ी थी… दीवार पर खून से घड़ी बनी थी — और उसमें लिखे थे वही अंक: 7:47।
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अयान की उँगलियाँ काँपने लगीं। वो अखबार की तस्वीर को बार-बार देख रहा था।
फ्लैट का दरवाज़ा, फर्श पर पड़ी लाश, और कोने में पड़ा टूटा हुआ मग… जो हूबहू वैसा ही था जैसा उसने पिछले हफ्ते "हत्या की कहानी" में डिटेल में लिखा था।
अयान बड़बड़ाया: "ये... ये इत्तेफ़ाक नहीं हो सकता... ये... ये मेरी कहानी है!"
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उसने लैपटॉप की स्क्रीन फिर से देखी —
"शाम 7:47 पर वो मरा पाया गया… उसकी गर्दन ज़मीन से अलग थी।"
एक ठंडी हवा खिड़की से अंदर घुसी। पर्दे हिलने लगे, जैसे कमरे में कोई और भी मौजूद हो…
और तभी... लैपटॉप की स्क्रीन झपकी।
कुछ लिखा हुआ अपने-आप मिटा, और एक नई लाइन टाइप हो गई:
"अगला नंबर… लेखक का है।”
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तीन दिन बाद...
अयान की बालकनी में बहती ठंडी हवा अब पहले जैसी सुकून देने वाली नहीं थी।
उसका चेहरा और भी गहरा उतर चुका था, आँखों के नीचे गड्ढे जैसे फैल गए थे।
तीन दिन तक वो खुद को समझाता रहा...
“इत्तेफाक था… हाँ, बस इत्तेफाक…”
लेकिन कहीं न कहीं, उसके मन के कोने में एक डर धीरे-धीरे पनपने लगा था —
"अगर ये इत्तेफ़ाक नहीं है तो क्या?"
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उसने खुद को लिखने में डुबो देने की कोशिश की,
सोचा: "शायद लिखने से ही डर खत्म हो..."
वो लैपटॉप के सामने बैठा, कॉफी की जगह अब व्हिस्की का गिलास था।
उसने अगली लाइन लिखी: “एक युवक, जो हर सुबह चार बजे दौड़ने निकलता था… एक दिन गया — और कभी वापस नहीं आया। उसका शव गंगा घाट के पीछे मिला — चेहरा तेज़ाब से जलाया गया था। उसकी पहचान मिट चुकी थी।”
टाइप करने के बाद उसने कुछ देर तक स्क्रीन को घूरा…
फिर मुट्ठियाँ भींच लीं, जैसे कोई गुनाह करने से पहले डरते हैं, वैसे।
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सुबह — 6:13 AM
मोबाइल की बीप ने उसे नींद से झकझोर दिया।
न्यूज़ अलर्ट चमक रहा था:
"इलाहाबाद: गंगा घाट पर मिला जली हुई लाश, सुबह 4 बजे लापता हुआ था युवक। पहचान अधूरी, चेहरा तेज़ाब से झुलसा हुआ।"
अयान का गला सूख गया। हाथ से फोन गिर पड़ा।
वो बिस्तर से उठा नहीं… बस दीवार के सहारे बैठा रहा।
उसके मन में एक ही सवाल घूम रहा था —
"मैंने जो लिखा... वही फिर से हुआ। कैसे?"
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मोबाइल फिर बजा।
इस बार Caller ID देख उसका दिल बैठ गया। इंस्पेक्टर अरुण तिवारी।
उसने काँपते हाथों से कॉल उठाया।
तिवारी धीमी लेकिन ठंडी आवाज़ में: "अयान... इस बार तुमसे कुछ छुपा नहीं है। अब बस जवाब चाहिए।"
अयान: "क्या मतलब?"
तिवारी: "तुम जो लिखते हो, वो कत्ल में बदल जाता है।
फ्लैट 203 — गर्दन कटी लाश।
और अब गंगा घाट — तेज़ाब से जला शव।
दोनों तुम्हारी स्क्रिप्ट से हूबहू मेल खाते हैं।
कोई तुम्हारी लिखी स्क्रिप्ट को फॉलो कर रहा है…
या फिर — तुम खुद वो स्क्रिप्ट पूरा कर रहे हो?"
कमरे में एक अजीब सन्नाटा छा गया। अयान की साँसें तेज़ चलने लगीं।
अयान घबराहट में: "नहीं! मैं सिर्फ लिखता हूँ… कत्ल नहीं करता! आप मुझे क्यों फँसा रहे हैं?"
तिवारी बिलकुल सपाट लहज़े में कहता है:
"तुम्हारे पास अलिबाई है?"
"कल रात 4 बजे कहाँ थे?"
अयान: "मैं... मैं अपने घर पर था…"
तिवारी: "कोई गवाह?"
अचानक वहां खामोशी छा गई।
तिवारी धीरे से कहता है: "ठीक है… फिर मिलते हैं, अयान।"
और कॉल कट गया।
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कमरे में डर फैलने लगा था... अयान अब अकेला नहीं लग रहा था।
कमरे की हर दीवार उसे घूरती लग रही थी,
जैसे उसकी कहानियाँ अब उसके ख़िलाफ़ गवाही दे रही हों।
उसने जल्दी से अपनी पुरानी डायरी निकाली,
हर स्केच, हर ड्राफ्ट, हर प्लॉट को उलट-पलट कर देखने लगा।
और तभी... उसे कुछ मिला।
एक पुराना नोट: “हर कहानी का जन्म एक कल्पना से नहीं — एक अनुभव से होता है।”
अयान को याद नहीं था उसने ये कब लिखा था।
पर अब वो पंक्तियाँ जैसे भविष्यवाणी जैसी लग रही थीं।
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बाहर कोहरा और भीतर संदेह... वो बालकनी में गया।
शहर के ऊपर सफ़ेद कोहरा लटका था।
नीचे सड़क पर एक आदमी खड़ा था —
काले कोट में, ऊपर देखता हुआ… बिलकुल स्थिर।
अयान पीछे हटा। उसका दिल तेज़ धड़क रहा था।
क्या कोई अयान की कल्पनाओं को हक़ीक़त बना रहा है?
या फिर अयान खुद अनजाने में एक ‘हत्यारा लेखक’ बन चुका है?
“मैंने जो लिखा… किसी ने उसे पढ़ा — और फिर उसे जिया।”
रात – 12:56 AM
इलाहाबाद की सर्द रात।
खिड़की के बाहर कोहरा और कमरे के भीतर अजीब सन्नाटा।
अयान चुपचाप अपने लैपटॉप के सामने बैठा था,
पिछले दो हफ्तों में दो कत्ल…
और दोनों उसकी अधूरी कहानियों की नकल।
अब उसे खुद पर ही शक होने लगा था —
"क्या मैं नींद में कोई और बन जाता हूँ?"
लेकिन आज, वो एक नई बात देखने आया था।
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अयान ने अचानक नोट किया कि उसकी कहानी वाली फाइलें…
“हत्या की कहानी — Drafts”
हर बार रात 1:13 बजे खुली मिलीं।
वो समय जब वह गहरी नींद में होता था।
उसने विंडोज लॉग्स, फाइल हिस्ट्री और मैक टाइमस्टैम्प्स सब चेक किया।
और सच साफ़ था —
उसका लैपटॉप रात 1:13 पर खुद-ब-खुद एक्टिव होता था।
और किसी ने ‘Edit’ किया भी नहीं, बस फाइल ‘Open’ हुई थी।
तीन बार। तीन अलग-अलग रातों में। और तीनों कत्ल से पहले।
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"क्या कोई मेरे सिस्टम में है?"
उसका माथा पसीने से भीग गया।
"क्या ये कोई साइबर हैक है? या कोई रिमोट एक्सेस?"
अयान ने एंटीवायरस स्कैन चलाया — कुछ नहीं मिला।
वो tech-savvy नहीं था, पर इतना समझ गया:
कोई उसकी फाइलें देख रहा है — शायद उस पर निगरानी रख रहा है।
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अब सवाल उठा — कौन?
पहला संदिग्ध: बिल्डिंग का चौकीदार — रमेश।
उम्र 48, गांव से आया, दिनभर अखबार पढ़ता और लोगों पर गहरी नज़र रखता है।
वो अकेला आदमी था जिसे मालूम था कि अयान कौन है और किस फ्लैट में रहता है।
कुछ दिन पहले, जब अयान ने उसे देर रात कॉरिडोर में देखा था, रमेश फर्श पर बैठा कुछ नोट कर रहा था…
और उसकी डायरी में अयान का नाम लिखा हुआ था।
दूसरा संदिग्ध: नीचे वाले फ्लोर पर रहने वाली — श्रीमती सेन।
उम्र 62, पति की मौत के बाद अकेली रहती हैं।
शांत, पर जिज्ञासु।
अयान को कभी-कभी बालकनी से घूरती रहती थीं।
और एक बार, अयान ने देखा कि उनके ड्राइंग रूम में उसकी एक पुरानी किताब “रक्तरेखा” की फोटोफ्रेम में सजाई गई कॉपी रखी थी।
“मैंने कभी उन्हें वो कॉपी नहीं दी थी…”
तीसरा संदिग्ध: जयदीप — पुराना कॉलेज का दोस्त, और फैन।
वो खुद भी लेखन में हाथ आजमाता था।
अयान से अक्सर कहते रहता: “तू जो लिखता है, वो मैं जीना चाहता हूँ…”
पिछले हफ्ते ही बिना बताये शहर आया था।
और जिस दिन पहला कत्ल हुआ, उसी रात उसने अयान को मैसेज किया:
"तेरी नई कहानी बहुत ‘real’ लगती है, भाई। डरावनी हद तक।"
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"पर कोई ऐसा क्यों करेगा?"
अब असली सवाल यही था —
“कोई मेरी कहानियाँ चुरा क्यों रहा है?”
“क्या वो मुझसे आगे की स्क्रिप्ट चाहता है?”
“या फिर वो मुझे ‘कहानी का हिस्सा’ बना देना चाहता है?”
अयान की नज़रें अब हर शख़्स पर शक से भर चुकी थीं।
चौकीदार जब सीढ़ियाँ चढ़ता, उसकी चाल में अब ‘साज़िश’ लगती थी।
श्रीमती सेन की धीमी-धीमी हँसी… अब ‘भूतिया’ लगने लगी थी।
और जयदीप का अचानक आना… अब ‘इरादतन’ लगने लगा था।
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अयान ने बिल्डिंग के सीसीटीवी की रिक्वेस्ट की।
पर जवाब आया —
"उस विंग की कैमरा लाइन पिछले दो हफ्तों से बंद है, रिपेयर पेंडिंग है।"
“दो कत्ल — और दोनों हफ्तों में कैमरे बंद?”
“क्या ये महज़ संयोग है… या कोई सोची-समझी योजना?”
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रात बढ़ती गई… और डर गहराता गया
अयान अब अपने लैपटॉप को बंद करने से डरने लगा था।
हर बार लगता — "रात 1:13 बजे कोई फिर से उसे खोलेगा…"
उसने तय किया — "इस बार मैं नहीं सोऊँगा।"
फिर रात 1:12 AM
वो लैपटॉप के सामने बैठा था — हाथ में मोबाइल कैमरा ऑन, रिकॉर्डिंग चालू।
1:13 AM — क्लिक!
लैपटॉप की स्क्रीन झपकी।
माउस खुद-ब-खुद मूव हुआ।
और फोल्डर “हत्या की कहानी” खुला।
और… एक नया फाइल अपने आप बन गया:
"3rd.txt"
अयान की रूह काँप गई। उसने वो फाइल खोली।
उसमें सिर्फ एक लाइन लिखी थी: "तीसरा खून…बहुत निजी और बहुत नज़दीक है।"
अब सवाल ये नहीं कि कौन कर रहा है,
बल्कि ये है कि कब और कहाँ अगला हमला होगा। क्या अयान अगला निशाना है? या फिर... वो खुद अगला किरदार लिखेगा?
"अगर क़ातिल मेरी कल्पना को जी रहा है... तो क्यों न मैं उसकी मौत लिख दूँ?"
10 जुलाई की शाम – 7:03 PM
कमरे में बल्ब की रोशनी मद्धम थी।
बाहर हल्की बारिश हो रही थी, और खिड़की के काँच पर बूँदें एक लय में गिर रही थीं — जैसे समय की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी हो।
अयान — अब थक चुका था। डरा हुआ नहीं... बस थका हुआ।
तीन कत्ल… तीन कल्पनाएँ… तीन हक़ीक़तें।
और अब, वह समझ गया था — "कोई उसे देख रहा है। पढ़ रहा है। और हर शब्द को हत्या में बदल रहा है।"
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उसके मन में एक पागलपन भरा खतरनाक ख्याल आया —
"अगर मेरी कल्पना ही इस खेल की चाभी है... तो क्यों न मैं अंत लिख दूँ?"
"क्यों न क़ातिल को मार दूँ — कहानी में ही?"
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उसने अपनी कुर्सी पर बैठते हुए, वाइन का गिलास एक तरफ रखा,
लैपटॉप ऑन किया… और लिखा:
“10 जुलाई की रात, वही आदमी जो इन हत्याओं के पीछे था — अपने ही कमरे में मरा पाया गया।
उसकी छाती पर मेरी किताब रखी थी — ‘हत्या की कहानी’।
उसकी आँखें खुली थीं — लेकिन उनमें अब कोई रहस्य नहीं बचा था।”
फिर अयान ने ‘Save’ पर क्लिक किया।
और फाइल का नाम रखा: "FinalEnd.txt"
उसने एक लंबी साँस ली… मानो किसी अंत की इबारत लिख दी हो।
फिर उसने लैपटॉप बंद किया… बत्ती बुझाई… और पहली बार शांति से सोया।
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सुबह — 6:44 AM , दरवाज़े की घंटी बजी।
अयान नींद में था, पर एक अजीब-सी बेचैनी से जागा।
दरवाज़े की घंटी दोबारा बजी तेज़ और लगातार।
उसने हड़बड़ाते हुए दरवाज़ा खोला, सामने था इंस्पेक्टर तिवारी।
उसका चेहरा पहले से ज़्यादा गंभीर था।
तिवारी धीमे लेकिन ठोस लहज़े में बोला: “तुम्हारा कोई दुश्मन है, अयान?”
अयान हकबकाया: "नहीं… क्यों?"
तिवारी: "तो फिर ये देखो।" (उन्होंने अख़बार का पहला पन्ना उसकी तरफ बढ़ाया)
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हेडलाइन — “कल रात एक युवक की रहस्यमयी मौत, छाती पर लेखक की स्क्रिप्ट”
स्थान: शिवगंगा एन्क्लेव, कमरा 102।
स्थिति: शव बिस्तर पर पड़ा था — आँखें खुली थीं, और छाती पर एक पन्ना रखा था। पन्ने पर शीर्षक था — “FinalEnd.txt”
और नीचे अयान का नाम था।
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अयान के हाथ काँपने लगे।
उसने अख़बार का पन्ना दोबारा देखा… "वही तारीख… वही जगह… वही हालत… वही लाइनें… जो उसने रात को लिखी थीं।"
उसने तिवारी की ओर देखा — पर तिवारी चुप थे। बस उसे घूर रहे थे।
तिवारी: "क्या अब भी कहोगे कि ये इत्तेफाक है?"
"या फिर... ये कोई संदेश है?"
"कातिल मारा गया है, या कोई तुमसे खेलने में और होशियार है?"
अयान ने बुदबुदाया: "कातिल मर गया… मैंने लिखा था…"
तिवारी: "या फिर उसने खुद को मारा — ताकि तुम्हें ये दिखा सके कि वो तुम्हारी हर बात के आगे है?"
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इंस्पेक्टर तिवारी चला गया।
अयान ने कमरे में आकर वो पन्ना निकाला —
"FinalEnd.txt"
उसने देखा — फाइल पर ‘Last Opened’ टाइम दिखा रहा था — 1:13 AM
वही समय… वही हरकत।
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कातिल मर गया — या नई कहानी शुरू हुई? अब सवाल बदल गया था:
क्या उसने सच में कहानी को ख़त्म किया?
या फिर क़ातिल ने उसे यही सोचने दिया — ताकि अगला चैप्टर और ख़तरनाक हो?
1:13 AM — अभी भी टिक टिक कर रही है। शब्द अब हथियार बन चुके हैं। और अयान को नहीं पता —कि अगली कहानी… वो लिखेगा? या फिर... कोई और उसके लिए लिख चुका है?
रात — 1:45 AM
कमरे की बत्तियाँ बुझ चुकी थीं।
केवल लैपटॉप की स्क्रीन की हल्की नीली रौशनी अयान के चेहरे पर पड़ रही थी।
पर इस बार कोई फाइल नहीं खुली।
कोई शब्द नहीं टाइप हुआ।
बस अयान था — और उसका डर।
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तीन कत्ल… एक आत्महत्या… और हर कत्ल की स्क्रिप्ट उसी की कलम से निकली थी।
क्या ये सब कोई बाहरी खेल था?
या फिर — उसके भीतर ही कोई बैठा था… जो खेल खेल रहा था?
उसने खुद को कमरे में बंद कर लिया।
ताले लगाए… खिड़की की कुंडी बंद की… फोन स्विच ऑफ किया…
और लैपटॉप — दीवार पर पटक दिया।
"काफ़ी हो गया। अब मैं नहीं लिखूँगा। अब ये सब बंद।"
पर उसके अंदर एक आवाज़ गूंज रही थी —
"तू सच से भाग रहा है… पर वो तेरे भीतर ही है।"
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अयान बाथरूम में गया। उसने अपने चेहरे पर पानी डाला।फिर आइने में देखा — उसके बाल बिखरे हुए, आँखें लाल… थका हुआ इंसान।
पर अगले पल, वो चौंक गया। उसका अक्स… मुस्कुरा रहा था। उसकी नज़रे मिलीं।
अयान सीधा खड़ा हुआ — पर अक्स थोड़ा झुका हुआ था।
"क्या… ये मैं हूँ?"
अयान पीछे हटा। फिर पास गया।
आइना अब वैसा ही था — शांत, स्थिर।
लेकिन उस एक पल की मुस्कान ने उसकी आत्मा में दरार डाल दी थी।
अयान पीठ दीवार से टिकाकर ज़मीन पर बैठ गया।
उसके दिमाग में तुफान चल रहा था: "अगर कातिल कोई और नहीं…"
"तो क्या मैं ही वो था… जो हर बार खुद को कहानी के पीछे छुपा लेता था?"
"क्या मेरी कल्पना ही असली राक्षस है?"
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तभी उसे याद आया —
पुराने बक्से में रखी बचपन की एक डायरी… जो उसने कभी नहीं खोली थी।
उसने खुद को खींचते हुए उठाया — और कमरे के कोने में पड़े लकड़ी के संदूक को खोला।
संदूक के अंदर धूल से भरी डायरी थी। जिसके पन्ने दीमक ने खाए थे। उसके ऊपर नाम लिखा था — “अयान सिंह, कक्षा 9वीं”
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उसने पहला पन्ना खोला — और उसके होश उड़ गए।
“8 नवम्बर — मेरी उम्र 14 साल। आज पहली बार मैंने किसी को मरते देखा… नहीं… मार दिया।
वो स्कूल का लड़का था — जो मुझे चिढ़ाता था।
मैने किसी को नहीं बताया… पर अब… मुझे लिखने में मज़ा आता है।”
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कमरे में सन्नाटा छा गया… और उसके अंदर एक शोर
अयान के हाथ काँपने लगे। "मैंने... 14 साल की
उम्र में...?"
हर शब्द उसकी रगों में जहर बनकर दौड़ने लगा।
"क्या मैं तब से लिखता नहीं... दोहराता आया हूँ?"
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अब अयान को कोई और नहीं, खुद से डर लग रहा था।
कहानी यहीं नहीं रुकती। ये तो सिर्फ शुरुआत है…
[अगला भाग:]
अयान की डायरी में दर्ज है वो नाम… वो जगह… और वो पहली हत्या की तस्वीरें…
जिसे वो खुद भूल चुका था।
और उस डायरी के आखिर में लिखा है:
"एक दिन... सब फिर दोहराया जाएगा। और तब… कोई नहीं बचेगा — यहाँ तक कि मैं भी नहीं।"
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To Be Continued...
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> यह कहानी पूरी तरह काल्पनिक है।
इसमें वर्णित सभी पात्र, घटनाएँ और स्थान लेखक की कल्पना पर आधारित हैं। इनका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति, वास्तविक घटना या स्थान से कोई संबंध नहीं है।
यह केवल मनोरंजन और साहित्यिक उद्देश्य के लिए लिखी गई है।
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