नरकवंश अध्याय 3: काली पोथी का पहला पन्ना – जब तंत्र जागा और आत्मा पुकारने लगी


एक रहस्यमयी झोपड़ी में एक प्राचीन काली पोथी खुली हुई है, सामने एक भारतीय बालक ध्यान मुद्रा में बैठा है और उसकी आँखें चमक रही हैं, झोपड़ी के कोने में एक धुंधली आत्मा प्रकट हो रही है।
काली पोथी के पहले पन्ने के जागरण का दृश्य — जहाँ कृशांत को पहली बार आत्मा की पुकार सुनाई देती है।



पिछली रात के बाद…

कृशांत की आँखों में अब नींद नहीं थी, एक अजीब-सा धुंआ बस गया था। हर चीज़ अब "साफ़ होकर भी धुँधली" दिखती थी। जब वो किसी बंद कमरे में जाता, दीवारों पर पिघले हुए चेहरे रेंगते दिखाई देते — कभी कोई स्त्री अपने ही बालों में उलझती चीख़ रही होती, तो कभी कोई बूढ़ा, अपनी जली हुई छाया को समेटे कहता — "तू अब बचा नहीं..."

कृशांत के हाथ की नसें नीली पड़ गई थीं — जैसे किसी जादुई ताप ने उसके रक्त को छू लिया हो। वो अब सामान्य नहीं रहा था। और उसे इसका आभास था।

अगली सुबह – व्रणक की घास और राख से बनी झोपड़ी के भीतर गाढ़ी धूप नहीं आती थी — सिर्फ़ धुआँ, और अगरबत्तियों जैसी अजीब गंध थी। झोपड़ी के बीचोंबीच बिछी बकरी की खाल पर बैठा था कृशांत। उसके सामने रखी थी एक काली पोथी,

जिसे व्रणक ने कभी "मृतज ज्ञान की कुंजी" कहा था। 

जैसे ही कृशांत ने पोथी का पहला पन्ना खोला, एक भारी साँस सी फिज़ा में तैर गई — पन्ना धूल से ढँका था, लेकिन उस धूल के नीचे कुछ लिखा था। कृशांत ने उँगली घुमाई — धूल हटी। और लाल रंग में उभरे शब्द दिखे… लेकिन वो स्थिर नहीं थे।

अक्षर हिल रहे थे, जैसे वो साँस ले रहे हों। कभी एक शब्द जलता… फिर धुआं बनकर उड़ जाता। फिर वही शब्द दोबारा उभर आता — पर इस बार और गहरा होता।


> कृशांत धीरे से व्रणक से कहता है: “बाबा… ये पन्ना खुद-ब-खुद बदलता है… ये शब्द ज़िंदा हैं…”

व्रणक मुस्कराया, उसकी आँखों में एक दर्दनाक गर्व था।

व्रणक ने गंभीर स्वर में कहा: “हाँ… क्योंकि ये पोथी तेरे रक्त से जुड़ी है। यह सिर्फ़ पढ़ी नहीं जाती…इसे अनुभव से समझा जाता है। जितना तू सहेगा… जितना तू भीतर जाएगा…उतना ही ये पोथी खुद को खोलेगी।”

पन्ने पर लिखा पहला वाक्य अब स्थिर हो गया था: "आत्मा जब पहली बार मृत्यु का स्वाद चखती है, तभी उसे शक्ति मिलती है मृत्यु से ऊपर उठने की…"

कृशांत की उँगलियाँ उस वाक्य के पास गईं, और उसके साथ ही— एक हल्की चिंगारी निकली। और एक झटके में, कृशांत के भीतर कुछ टूट गया। उसका सिर झुका, पसीना बहने लगा।उसकी आँखों के सामने अब झोपड़ी नहीं, बल्कि एक और दुनिया थी — दृश्य बदलता है — कृशांत का पहला दर्शन

वो खुद को देखता है —एक वीरान मैदान में, चारों तरफ़ राख उड़ रही है। बीच में एक यज्ञ कुंड जल रहा है, और उसके सामने एक तांत्रिक खड़ा है — चेहरा नकाब से ढँका हुआ, उसके गले में मृत खोपड़ियों की माला थी, और वो बार-बार एक ही शब्द दोहरा रहा है: “यज्ञ प्रारंभ नहीं हुआ… क्योंकि वाहक अभी अधूरा है…”

इधर झोपड़ी में, कृशांत की साँसें तेज़ हो जाती है। उसके माथे से ख़ून की एक पतली बूंद गिरती है —सीधे काली पोथी के पहले पन्ने पर।

और तभी — पन्ना दूसरी बार चमकता है, और खुद को मोड़कर बंद हो जाता है। व्रणक धीरे से कहता है: “शुरुआत हो गई है, कृश… अब तुझे सिर्फ़ पढ़ना नहीं, उस तांत्रिक से टकराना भी होगा — और जो तूने देखा… वो सिर्फ़ एक चेतावनी थी…”

फिर जैसे ही कृशांत की उँगली से खून की एक बूंद काली पोथी के पन्ने पर टपकी — उस बूंद ने शब्दों को जगाया। शब्द एक-एक करके चमकने लगे — और पन्ना बदल गया। कृशांत की साँसें थम सी गईं। पन्ने के बीचोंबीच एक नई इबारत उभरी, किसी पुरानी लिपि में… लेकिन कृशांत उसे समझ पा रहा था।

“स्तर 1: प्रेत-संवेदी दृष्टि” शक्ति जो: मृत आत्माओं को देख सकती थीं, सुन सकती थीं, और उनसे संवाद कर सकती थीं।

परीक्षा: "तू तभी इस शक्ति को नियंत्रित कर पाएगा, जब तू एक आत्मा के अधूरे कार्य को पूरा करेगा…

पन्ने के शब्द जैसे ही मिटे — झोपड़ी की दीवारें काँपने लगीं।सांकलें खनकने लगीं… अगरबत्तियों की लौ उलटी जलने लगी… और व्रणक अपनी जगह शांत बैठा रहा —जैसे वो जानता था… अब कौन आने वाला है।

झोपड़ी के एक कोने में, जहाँ धूप कभी नहीं जाती थी, अचानक एक धुँधली आकृति उभरी। कृशांत की आँखें फैल गईं — ये वही बच्चा था जिसे उसने पहले भी परछाइयों में देखा था। जिसकी आँखों में सिर्फ़ इंतज़ार था… और अधूरा न्याय।

वह प्रेत धीरे, और काँपती हुई आवाज़ में बोलता है: “मेरा नाम… चंदू था…मुझे कुएँ में धकेला गया था…मेरी मौत कोई दुर्घटना नहीं थी… मैं खेल नहीं रहा था…मुझे छिपाया जा रहा था…”

कृशांत की रीढ़ में एक सिहरन दौड़ी। वो आगे झुका, धीरे से पूछा — “किसने…? किसने धकेला तुझे?”

प्रेत अब कुछ और ठोस हो गया था। उसका चेहरा अब साफ़ था — भीगा हुआ, डर से भरा। लेकिन उसकी आँखें शांत थीं।

 चंदू धीरे से बोला: “वो… जो मुझे बलि चढ़ाना चाहता था। उस रात मंदिर के पीछे वाली गुफा में एक तांत्रिक मंच पर मुझे ले जाया गया… पर यज्ञ पूरा नहीं हो सका… मैं डर के मारे भागा… और उसने मुझे कुएँ में धकेल दिया।”

व्रणक गंभीर स्वर में बोला: “बलि अधूरी रह गई… लेकिन आत्मा बंध गई तांत्रिक के कर्मों से… इसलिए चंदू अब मुक्ति चाहता है। और तेरे ‘प्रेत-संवेदी दृष्टि’ की पहली परीक्षा —इसी की आत्मा को शांति देना है।”

चंदू धीरे से बोला: “मंदिर के पीछे एक टूटी गुफा है…वहाँ एक पत्थर का मंच है… उसी के नीचे मेरी अस्थियाँ छिपाई गई हैं…उन्हें वहाँ से निकाल कर नदी में बहा देना…तभी… मैं मुक्त हो पाऊँगा…और तभी… तेरी दृष्टि नियंत्रण में आएगी…”

अचानक सब शांत हो जाता है… चंदू की आत्मा फिज़ा में घुल जाती है। झोपड़ी फिर वैसी ही हो जाती है — लेकिन कृशांत का चेहरा अब बदल चुका है। उसकी आँखों में अब डर नहीं, उद्देश्य था।

अगली सुबह कृशांत अकेले ही निकल पड़ा था। उसके कंधे पर एक छोटा थैला था — जिसमें व्रणक ने कुछ राख, एक रुद्राक्ष, और हनुमान चालीसा की फटी प्रति दी थी। “तेरी रक्षा इससे नहीं होगी,” व्रणक ने कहा था, “पर तुझे ये याद दिलाएगा —कि तू अब अधमरा नहीं है… अब तू राह में है।”

गांव के मंदिर के पीछे, एक पुरानी पगडंडी टूटते-झरते पत्थरों के बीच गुम हो जाती थी। कृशांत उसी रास्ते पर बढ़ा। कुछ ही देर में, उसे एक अर्धवृत्ताकार गुफा दिखी — उसके मुँह पर सूखे नींबू और लाल धागे बंधे थे। जैसे किसी ने उसे बाँधने की कोशिश की हो…

कृशांत ने एक गहरी साँस ली और भीतर प्रवेश किया। अंदर का रास्ता तंग, घुटनभरा और नम था। दीवारों पर कालिख जैसे कुछ जले हुए चिह्न थे —जैसे किसी ने मंत्रों को खुरचकर, उनकी राख दीवारों में भर दी हो। कुछ जगहों पर सफ़ेद चूने से बना "त्रिपुंड" और लाल रक्त से खींचे गए "भैरवी यंत्र" उकेरे हुए थे।

गुफा की हवा भारी थी — हर साँस के साथ ऐसा लगता जैसे कोई कंधे पर हाथ रख देता हो।

कृशांत एक चौकोर कक्ष में पहुँचा। बीच में बिछी थी एक पुरानी चमड़े की चटाई — उस पर रखी थीं — छोटे बच्चे की अस्थियाँ। साथ में एक झुलसी हुई रुद्राक्ष माला और भस्म से खींचा गया चक्र — जिसके बीचोंबीच लिखा था: "बलि अधूरी है — वह लौटेगा…"

कृशांत ने काँपते हाथों से अस्थियाँ उठाईं। जैसे ही उसने अस्थियों को स्पर्श किया — गुफा काँपने लगी! दीवारों से धूल झड़ने लगी…और मंत्रों की कालिख ताज़ा होकर जलने लगी…और फिर — एक स्याह परछाईं दीवार से अलग हुई। धीरे-धीरे वो आकार लेने लगी —

लंबा कद, राख से सना शरीर, और चेहरा… नकाब से ढँका हुआ। उसके चारों ओर हवा जैसे स्थिर हो गई — कृशांत की साँसें थम गईं।

नकाबपोश की आत्मा गूँजती आवाज़ में बोली: “उस लड़के को… मैंने मरवाया। वो यज्ञ मेरा प्रवेश द्वार था… लेकिन बलि अधूरी रही…अब तू आया है… तेरे रक्त से मैं पूर्ण हो जाऊँगा…”

कृशांत काँपा — लेकिन उसके भीतर एक नई ज्वाला थी, उसकी आँखों में चंदू की मासूम चीखें गूंज रही थीं, वो कुएँ की ठंडी गहराई, वो गुफा में पड़ी हड्डियाँ…

कृशांत डटकर, तेज स्वर में बोला: “तेरी अधूरी बलि अब कभी पूरी नहीं होगी। तेरा नाम भी मिट जाएगा…और आज… चंदू भी मुक्त होगा।”

कृशांत अस्थियों को अपने थैले में रखा — और कमर से व्रणक द्वारा दी गई राख की पुड़िया निकाली।

नकाबपोश आत्मा गुर्राई: “तुझे लगता है तू मुझे रोक पाएगा? मृत शक्ति को जीवन नहीं रोकता… सिर्फ़ एक दूसरी मृत्यु ही रोक सकती है…”

और फिर वह हवा में उठा — उसके चारों ओर गुफा की दीवारों से मंत्र उड़ने लगे — शब्दों की शक्ल में, आग के गोले बनकर। कृशांत पीछे हटा —लेकिन एक मंत्र उसकी छाती से टकराया — उसका शरीर हवा में उछलकर दीवार से टकराया।

कृशांत के लहूलुहान चेहरे पर एक हल्की मुस्कान उभरी, उसने थैली से रुद्राक्ष माला निकाली — और राख को अपने माथे पर लगाया। “जिसे तू मृत समझ रहा है…वही अब तेरी मुक्ति का कारण बनेगा…”

यह वही क्षण था जब शरीर टूटता है और आत्मा जागती है, कृशांत ज़मीन पर गिरा पड़ा था —छाती जल रही थी, साँसें रुक-रुक कर आ रही थीं। पर उसकी मुट्ठी में अभी भी राख थी… और उसकी आत्मा में… चंदू की पीड़ा। जैसे ही उसने चटाई पर हाथ रखा, उसकी आँखों की पुतलियाँ काली हो गईं।उसने माला चटाई पर रख दी, और अस्थियों को भस्म में डुबाकर यंत्र के बाहर फेंक दिया।

गुफा के चारों ओर अचानक एक भंवर बनने लगा —हवा चिल्लाने लगी, मंत्रों की कालिख दीवारों से निकलकर कृशांत के चारों ओर घूमने लगी।

और तभी — काली पोथी हवा में उठी। उसका दूसरा पन्ना अपने आप खुल गया, और उसमें से चमकती हुई लिपि में एक वाक्य उभरा — “मंत्र: पिशाच निर्वात" "जो आत्मा बंधी हो, उसे तांत्रिक वश से मुक्त कर धुएँ में वापस धकेलने वाला प्राचीन मंत्र…"

कृशांत ने गूंजती हुई गम्भीर आवाज़ में मंत्र पढ़ा: “जगत्-विघ्न-विनाशक… स्वाहा…!”

जैसे ही शब्द बोले गए —गुफा की ज़मीन हिलने लगी, नकाबपोश आत्मा — जो अभी तक अजेय लग रही थी — अब जलने लगी, वो चीखी —उसके मुख से राख निकली और फिर वो धुएँ में बदलकर बिखर गई। तांत्रिक यंत्र जल गया, और माला भस्म हो गई, और पोथी का दूसरा पन्ना वापस उसमें समा गया।

कृशांत का शरीर थरथरा रहा था — लेकिन उसकी आँखों में अब डर नहीं था… बल्कि अदृश्य को पहचान लेने का विश्वास था। कृशांत हाँफते हुए उठा — अब उसकी आँखें और भी गहरी लग रही थीं… जैसे वो मृत और जीवित — दोनों की भाषा समझने लगा हो।

गुफ़ा से बाहर निकलते ही कृशांत नदी की ओर गया। दोपहर की रोशनी में भी नदी आज कुछ ठंडी और ख़ामोश थी। उसने चंदू की अस्थियाँ हाथ में लीं — एक अंतिम मंत्र बोला — और नदी में धीरे से छोड़ दीं।

पानी एक पल के लिए काला हुआ — जैसे सदियों पुराना कोई पाप उसमें घुल गया हो। और फिर… सब शांत हो गया।

तभी —आसमान में हल्की सी बिजली चमकी। बिना बादल के, बिना गरज के। और फिर… एक धीमी, लेकिन स्पष्ट फुसफुसाहट कृशांत के कानों में आई — “अब तू देखने वाला नहीं… पहचानने वाला भी बनेगा…”

कृशांत ने ऊपर देखा — आसमान अब वैसा नहीं रहा था, जैसे उसे अब ज़्यादा कुछ दिखाई देने लगा हो — दूसरों से ज़्यादा, और भविष्य से पहले।

कृशांत कुछ पल तक नदी को निहारता रहा। जिस पानी में चंदू की अस्थियाँ डूबी थीं, वो अब शांत था — लेकिन उस शांति में एक अजीब सी गूँज थी। हवा में कुछ बदला था। जैसे आस-पास की आत्माएँ अब उसे पहचानने लगी थीं।

कृशांत ने एक क्षण के लिए आँखें बंद कीं — और जब दोबारा खोलीं, तो सामने का दृश्य सामान्य नहीं रहा। अब वो सिर्फ़ पेड़, नदी, पत्थर नहीं देख रहा था — बल्कि अब वह परछाइयों के भीतर भी चेहरों को देख सकता था। शब्दों के पीछे छिपे दुःख को सुन सकता था।

उसे एक औरत दिखी — जो अपने टूटे कंगन के टुकड़े समेट रही थी… उसका बच्चा अभी तक लौटा नहीं था।

एक बूढ़ा दिखा — जिसकी आत्मा अपने ही घर की चौखट पर बंधी थी, क्योंकि उसकी चिता आधी जलाकर छोड़ दी गई थी।

और फिर — उसे अपनी परछाईं में एक चेहरा दिखा, जो उसके खुद के अतीत से जुड़ा था।

प्रेतदृष्टि – अब सिर्फ़ एक शक्ति नहीं, एक ज़िम्मेदारी है, अब कृशांत जान सकता था: आत्माएँ क्यों रुकी हैं, वह क्या चाहती हैं, और किस शक्ति या अपराध ने उन्हें बाँध रखा है।

यह दृष्टि अब केवल देखने के लिए नहीं थी — बल्कि यह भीतर तक सब पहचान लेती थी। हर आत्मा की भाषा अब उसके लिए खुल चुकी थी।

कृशांत वापस व्रणक की झोपड़ी पहुँचा। झोपड़ी अब पहले जैसी नहीं थी। अगरबत्तियाँ बुझ चुकी थीं, और व्रणक एक कोने में ध्यानमग्न बैठा था। वह जान चुका था कि कृशांत बदल चुका है।

उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं, और एक लंबी साँस ली —जैसे किसी युग की थकान उतर रही हो। “अब तू साधक नहीं रहा, कृश… अब तू आरंभकर्ता बन गया है…”

कृशांत कुछ कहने ही वाला था, लेकिन व्रणक ने हाथ उठाकर उसे रोका। और आंखे बंद करते हुए कहा: “और आरंभ के बाद…पतन तय है या उत्थान — ये तुझ पर निर्भर है…”

झोपड़ी में एक अजीब सन्नाटा भर गया… व्रणक की बातों के साथ ही झोपड़ी में दीये की लौ एकदम बुझ गई। एक पल को कृशांत को ऐसा लगा कि व्रणक कोई मनुष्य नहीं, बल्कि कोई अंतिम द्वारपाल था — जिसका काम अब पूरा हो चुका है।

कृशांत अब उस द्वार पर खड़ा था, जहाँ से आगे की राहें अब किसी गुरु की नहीं, बल्कि उसके अपने निर्णयों की मोहताज थीं

। प्रेतदृष्टि अब उसकी आँखों में नहीं, उसके भीतर जाग चुकी थी।


👉 अगला अध्याय पढ़ें: मरण चेतना का द्वार

      पिछला अध्याय पढ़ें: नरकवंश अध्याय 2: प्रेतदृष्टि का प्रारंभ


हमारी और भी कहानियां पढ़े:

१. नरकवंश अध्याय १: वो पहली आवाज़ – कृशांत कौन है? 

२. नरकवंश अध्याय 2: प्रेतदृष्टि का प्रारंभ 

३. अल्केमी मास्टर की वापसी


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❗ डिस्क्लेमर



यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक और फिक्शनल है। इसमें वर्णित तांत्रिक क्रियाएँ, शक्तियाँ या धार्मिक संदर्भ किसी भी वास्तविक धर्म, पंथ या आस्था का अपमान नहीं करते।

"नरकवंश – अमावस का उत्तराधिकारी" एक हॉरर फिक्शन सीरीज़ है जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन और रोमांच पैदा करना है।

कृपया इसे यथार्थ से जोड़कर न देखें।