प्रयागराज का एक नामी लेखक — प्रोफेसर अरुणोदय सेन — अपने ही स्टडी रूम में मृत पाया जाता है। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि उसने अपनी हत्या की भविष्यवाणी दो दिन पहले अपनी डायरी में कर दी थी।
क्या ये आत्महत्या है? कोई अलौकिक ताक़त? या एक सधे हुए अपराधी की कहानी?
अन्वेषक जयवर्धन त्रिपाठी, अपने शार्प दिमाग और शांत स्वभाव से इस रहस्य की परतों को उधेड़ता है — और दिखाता है कि अपराध चाहे जितना पेचीदा हो, सत्य की दृष्टि कभी धोखा नहीं खाती।
एक क्लासिक जासूसी रहस्य की शुरुआत — जहाँ हर सुराग एक नई दिशा खोलता है।
एक रहस्यमयी श्रृंखला की पहली फाइल "अपराध अगर चुप रहता है, तो सत्य भी अक्सर धीरे-धीरे ही बोलता है… लेकिन जब बोलता है, तो सब कुछ उजागर कर देता है।"
— अन्वेषक जयवर्धन त्रिपाठी
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08:36 AM
स्थान: सिविल लाइंस, प्रयागराज – एक पुराना कोठीनुमा बंगला सुबह की रोशनी बंगले की दीवारों से टकरा रही थी, लेकिन उसके भीतर अजीब सी एक गहराई थी — जैसे समय ने वहाँ चलना छोड़ दिया हो।
हमने गाड़ी बाहर खड़ी की। उस बंगले का फाटक आधा खुला था, और हवा में हल्की सी बासी चाय की महक तैर रही थी — मगर उसमें कुछ और भी था... एक ठंडक... जैसे मौत अभी वहीं कहीं मौजूद हो। "आरव, कैमरा चालू रखो," जयवर्धन त्रिपाठी की आवाज़ में कोई घबराहट नहीं थी — मगर उसमें एक सतर्कता थी, जो मुझे हमेशा असहज कर देती थी।
मैंने अपने कैमरे का रिकॉर्डिंग बटन दबाया। स्क्रीन पर लाल बिंदी जल उठी। हम दोनों धीरे-धीरे अंदर दाखिल हुए। बंगले का ड्राइंग रूम पुरानी किताबों और लकड़ी के फर्नीचर से भरा था। एक कोने में आधा बुझा हुआ लैम्प अब भी टिमटिमा रहा था, मानो रात के किसी दृश्य को पकड़ना चाहता हो।
हम उस तंग गलियारे से होते हुए उस कमरे तक पहुँचे जिसे प्रोफेसर सेन "अपना दिमाग़ रखने की जगह" कहते थे — एक छोटा स्टडी रूम। और वहीं, ठंडी फर्श पर, वह शरीर पड़ा था।
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प्रोफेसर अरुणोदय सेन। एक समय के प्रसिद्ध दार्शनिक और लेखक। अब, केवल एक जमी हुई आकृति — जिसकी आँखें खुली थीं, पर उनमें चेतना नहीं थी। चेहरे पर मानो कोई अधूरी बात, कोई अनकहा वाक्य अब भी जम गया था। जैसे उन्होंने मरने से पहले कुछ सोचा हो — लेकिन उसे कह नहीं पाए। उनके सिर के पीछे खून की परत थी — गाढ़ी और लगभग काली पड़ चुकी। पास ही एक टूटी हुई चाय की प्याली थी, जिससे सूखी पत्तियाँ अब भी झाँक रही थीं।
लेकिन असली झटका मुझे तब लगा जब मेरी नज़र उसके पास रखी एक खुली डायरी पर पड़ी। मैंने धीरे से पन्ना उठाया। स्याही अब भी चमक रही थी, मानो उसे अभी ही लिखा गया हो। "10 जून की रात कोई मेरी हत्या करेगा। मैं जानता हूँ, पर रोक नहीं सकता। जो पढ़ रहा है — वो ध्यान दे, हत्यारा बहुत क़रीब है।" (दिनांक: 8 जून)
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मैंने चौंक कर जयवर्धन की ओर देखा। उसने डायरी मुझसे ली, उसके पन्ने को पलटा… और फिर कुछ ऐसा किया जो मुझे अजीब लगा। वो पन्ने की स्याही को सूंघने लगा। "झूठ…" उसने धीमे से कहा। "स्याही में सच नहीं है।"
मैं समझा नहीं। "क्या मतलब?" वो झुका, डायरी के दूसरे कोने को देखा, फिर शव की तरफ़ इशारा किया — "यह पंक्तियाँ हत्या से पहले लिखी गईं दिखती हैं, लेकिन लिखी गई हैं बाद में। स्याही में अब भी नमी है — जबकि शरीर ठंडा हो चुका है।"
मैंने घड़ी की ओर देखा — समय 8:41 AM और उस वक़्त मुझे एक अजीब सी बात महसूस हुई — जैसे कोई छाया, जो वहाँ नहीं थी, मगर अब भी सब कुछ देख रही थी।
स्थान: प्रोफेसर सेन का बंगला, प्रयागराज समय: 10:15 AM — शव की जांच के बाद, शुरुआती पूछताछ बंगले की हवा अब भारी लगने लगी थी। फर्श पर चाय की प्याली के टूटे टुकड़े अब भी वहीं थे। बाहर दो पुलिस कांस्टेबल खामोशी से स्टडी रूम के बाहर खड़े थे।
जयवर्धन त्रिपाठी ने मुझे इशारे से कैमरा बंद करने को कहा। "अब शब्दों की परतें हटानी होंगी…" उसने कहा।
संदिग्ध 1: मीरा सेन —प्रोफेसर सेन पत्नी का बयान, ड्रॉइंग रूम में बैठे हुए, मीरा सेन की आँखें लाल थीं — शायद जागे हुए कई घंटों की थकान, या फिर कोई छिपी पीड़ा। "वो पिछले हफ्ते से अजीब व्यवहार कर रहे थे," मीरा ने धीमे स्वर में कहा, जैसे कोई भूली हुई स्मृति दुहरा रही हो। "कई बार खुद से बातें करते थे… कभी दीवारों से, कभी अपनी डायरी से। रात के दो-तीन बजे उठ जाते, और चुपचाप कुछ लिखते रहते थे। मैं पूछती, तो बस मुस्कुरा देते।"
जयवर्धन ने टेबल पर पड़े उनके एक पुराने चित्र की ओर देखा, जिसमें प्रोफेसर मुस्कुराते हुए किसी पुस्तक मेले में खड़े थे। "क्या उन्हें किसी से डर था?" जयवर्धन ने पूछा।
मीरा कुछ पल चुप रहीं, फिर बोलीं — "उन्होंने कुछ कहा नहीं… लेकिन उनकी आँखों में कुछ था… जैसे कोई अतीत फिर से लौट आया हो। कभी-कभी मैं उन्हें अपने ही कमरे में खड़े देखती थी — दीवार की तरफ़, जैसे कोई और वहाँ है।"
जयवर्धन ने सिर झुकाया, फिर धीरे से पूछा, "क्या वो डायरी पहले भी लिखा करते थे?" "हाँ, लेकिन वो जो आखिरी डायरी आपने देखी… वो नई थी। उन्होंने वो हाल में ही शुरू की थी — और उसे सबसे छिपाकर रखते थे।" जयवर्धन ने कुछ सोचते हुए कहा " ठीक है अब आप बाहर जाइए और चिराग घोषाल को भेज दीजिए।"
संदिग्ध 2: चिराग घोषाल — प्रोफेसर सेन का प्रिय शिष्य।हमने उसे स्टडी रूम के बाहर बुलाया —एक दुबला-पतला, चश्मा लगाए लड़का — उम्र कोई पच्चीस-छब्बीस रही होगी। चेहरे पर बेचैनी थी, पर आँखों में एक तीखी सचेतनता। उसने आते ही कहा "प्रोफेसर के साथ अंतिम चर्चा मेरी ही थी," उसने बोला। "उन्होंने मेरे रिसर्च पर नाखुश होकर मैन्युस्क्रिप्ट से मेरा नाम हटा दिया था। मैं नाराज़ था… पर मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा।"
जयवर्धन ने उसकी उंगलियों की ओर देखा —जहाँ नीली स्याही का एक हल्का निशान था, जैसे कोई कलम रिस गई हो… या हाल में कुछ लिखा गया हो। "तुमने हाल ही में कुछ लिखा?" जयवर्धन ने पूछा।
चिराग ने झिझकते हुए हाथ पीछे कर लिया। "मैं… मेरी आदत है डायरी लिखने की… बस यूँ ही…" "क्या तुम्हें प्रोफेसर की डायरी के बारे में कुछ पता था?"
चिराग सकपकाते हुआ बोला "उन्होंने कुछ नहीं बताया… लेकिन हाँ, वो मुझे देखने नहीं देते थे वो कॉपी। एक दिन मैंने देखा था — उसमें लाल स्याही से एक लाइन बार-बार लिखी थी… 'सच अधूरा नहीं रह सकता…'"
जयवर्धन ने बस सिर हिलाया — कोई प्रतिक्रिया नहीं, बस निगाहों से उसे पढ़ता रहा। "ठीक है, अब तुम बाहर जाओ" चिराग ने हां में सिर हिलाया और जल्दबाजी में बाहर की तरफ भाग गया।
जयवर्धन ने मुझसे कहा "आरव तुम्हे क्या लगता हैं? ये चिराग सच बोल रहा है।" मैने कहा" लड़का कुछ हड़बड़ा रहा है लेकिन दिखा रहा है जैसे वह सामान्य है।"
जयवर्धन मुस्कुराने लगा और बोला " अभी एक और बंदा है जिससे सवाल करने है?
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संदिग्ध 3: विनीत अग्रवाल — प्रकाशक, विनीत हमें पास के एक कैफ़े में मिला — वो पहले से परेशान लग रहा था। "उनका अगला मैन्युस्क्रिप्ट मेरे लिए ही था," उसने कहा। "पर प्रोफेसर ने अंतिम चैप्टर कभी नहीं भेजा। मैं इंतज़ार करता रहा…जब भी पूछता, वो कहते — 'अभी अधूरा है… और सच पूरा होने से डरता है।' क्या आप समझ सकते हैं इसका मतलब?"
जयवर्धन ने पूछा — "क्या वो किसी दबाव में थे? क्या उन्होंने कभी कोई ख़तरा ज़ाहिर किया?" विनीत ने सिर हिलाया — "नहीं… कम से कम मुझसे तो नहीं। लेकिन… उन्होंने पिछली दो किताबों में ऐसे पात्र लिखे थे जो असल लोगों से मिलते-जुलते थे। कुछ नाम बदले गए थे… लेकिन इशारे साफ़ थे।शायद… कोई नहीं चाहता था कि तीसरी किताब पूरी हो।"
जयवर्धन ने पूछा — कही आपने ही तो प्रोफेसर का काम तमाम नहीं कर दिया क्योंकि उन्होंने आपको अंतिम चैप्टर कभी नहीं भेजा। विनीत अग्रवाल का चेहरा फीका पड़ गया "ये आप क्या कह रहे हैं सर एक चैप्टर के लिए मैं किसी का खून कैसे कर सकता हूं।"
जयवर्धन ने कहा: " वो तो हम पता कर ही लेंगे। चलो आरव अब चलते हैं "
बातें धीरे-धीरे एक कोहरे जैसी तस्वीर बना रही थीं — तीन लोग, तीन तरह की नज़दीकी… तीन तरह का डर, असंतोष और रहस्य। लेकिन जयवर्धन अब भी कुछ नहीं बोल रहा था।वो बस अपने साथ लाए पुराने फाउंटेन पेन को पलटता रहा —और मुझे पता था, उसका दिमाग़ अब अगले सुराग की तरफ़ बढ़ चुका है।
स्थान: प्रोफेसर सेन का स्टडी रूम, समय: 11:42 AM – पुलिस चली गई थी, पर जयवर्धन नहीं। कमरा अब चुप था, लेकिन हर वस्तु जैसे बोलने को तैयार थी। जयवर्धन त्रिपाठी अपने दस्ताने पहन चुका था। मैंने फिर से कैमरा चालू कर दिया। "अब जो बचे हैं — वो हैं निशान, जो शब्दों से तेज़ होते हैं," उसने धीमे स्वर में कहा।
वो नीचे झुका और मृत प्रोफेसर की डायरी के उस पन्ने को, जिसमें लिखा था "10 जून की रात...", अलग से देखने लगा।उसने अपने बैग से एक छोटा लेंस निकाला — UV लाइट।स्याही नीली थी, मगर उस नीलेपन में एक हल्की बैंगनी चमक थी। "देख रहे हो आरव?" उसने पूछा। "ये Blue Blood Ink है — एक दुर्लभ स्याही। सिर्फ़ कुछ पुराने लेखक ही इसका इस्तेमाल करते हैं।
यूरोप से मंगानी पड़ती है। भारत में मुश्किल से 2-3 लोग ही इसका नियमित इस्तेमाल करते होंगे… और प्रयागराज में तो कोई नहीं।" "तो क्या इसका मतलब…" मैं बोल ही रहा था कि उसने बीच में कहा: "मतलब ये कि — यह पन्ना यहाँ लिखा ही नहीं गया था।
इसे किसी और ने, कहीं और लिखा — और यहाँ इस डायरी में चिपका दिया।" मेरे रोंगटे खड़े हो गए। क्या सचमुच हत्या को ऐसे मंचित किया गया था — जैसे कोई साहित्यिक नाटक?
फर्श पर, शव के पास — वहाँ कुछ सूखे गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखरी थीं। "ये क्यों नहीं हटाईं पुलिस ने?" मैंने पूछा।जयवर्धन ने उन्हें धीरे से उठाया — सूखी, भूरी हो चुकी पंखुड़ियाँ। उसने एक को सूंघा, फिर अपनी घड़ी में लगे डिजिटल मापक में डाल दिया। "ये फूल… 2 से 3 दिन पुराने हैं। न ये पूजा के हैं, न कोई स्मृति-चिन्ह। और देखो — इन्हें बिखेरा गया है, गिराए नहीं। कोई चाहता था कि ये दृश्य कृत्रिम लगे… जैसे कोई सस्पेंस ड्रामा रचा गया हो।"
मैंने उस दृश्य को कैमरे में जूम किया —और सच में, वो कमरे का हिस्सा कम, किसी थिएटर सेट जैसा ज़्यादा लग रहा था।
फिर जयवर्धन ने वही डायरी फिर से उठाई। लेकिन इस बार उसने "10 जून की रात कोई मेरी हत्या करेगा..." वाली प्रविष्टि को रोशनी के सामने किया। "अब असली खेल देखो," उसने कहा।
मैंने ध्यान से देखा — बाकी सारे पन्ने मोटे और सघन बनावट के थे। पुराने पेपर जैसे। लेकिन जिस पन्ने पर हत्या की भविष्यवाणी थी, वो हल्का और अजीब तरीके से पारदर्शी था। "ये पन्ना… इस डायरी का नहीं है," जयवर्धन ने कहा।
"यह किसी दूसरी कॉपी से फाड़कर इसमें चिपकाया गया है।और गोंद देखो — अभी भी हल्की सी गंध है… इसका मतलब इसे हाल ही में जोड़ा गया है — शायद प्रोफेसर की मौत के बाद ही।"
मैंने ठंडी हवा को अपनी गर्दन पर महसूस किया। कोई इस केस को कहानी की तरह गढ़ रहा था। लेकिन जो भी था — उसने एक गलती की थी: उसने जयवर्धन त्रिपाठी को अनदेखा किया था।
जयवर्धन अब चुप था। वो अपनी नोटबुक में कुछ लिख रहा था — कुछ नाम, कुछ तिथियाँ, कुछ प्रश्न। सवाल अब यह नहीं था कि प्रोफेसर मरे कैसे… बल्कि यह कि — किसने यह हत्या एक "कहानी" की तरह लिखी? और क्यों?
स्थान: प्रोफेसर सेन का स्टडी रूम, समय: शाम 6:27 PM प्रकाश: दीवार पर हल्की पड़ती नारंगी रोशनी — जैसे सूरज खुद भी इस केस का अंत देखना चाहता हो। शाम ढल रही थी। कमरे की खिड़की से झांकती रोशनी अब फीकी हो चली थी, और दीवारों पर छायाएं लंबी होने लगी थीं।
जयवर्धन त्रिपाठी ने सबको उसी स्टडी रूम में बुला लिया था उसी कमरे में, जहाँ से कहानी शुरू हुई थी… और अब जहां उसका अंत होने जा रहा था। मीरा सेन एक कोने में चुप खड़ी थीं।
विनीत अग्रवाल ने अपनी फाइल बंद कर दी थी — उसकी आंखों में अब भी आशंका थी। और चिराग घोषाल… वहीं दरवाजे के पास खड़ा था, दोनों हाथ जेब में, लेकिन चेहरा खिंचा हुआ। जयवर्धन ने कमरे की घड़ी की ओर देखा —6:30 PM बज चुके थे।
"ये कोई साधारण हत्या नहीं थी…" उसकी आवाज़ गूंज सी गई उस चुप माहौल में। "यह एक कहानी की तरह लिखी गई हत्या थी — जिसे हम पढ़ें, और वही समझें, जो हत्यारा चाहता है।"
"एक ऐसा मंच सजाया गया — जिसमें लेखक मरा है, एक डायरी है, फूल हैं, डर है, भविष्यवाणी है। और अंत में… एक लेखक के शब्द — '10 जून की रात मैं मारा जाऊँगा'… लेकिन असली लेखक कौन था?"
उसने सबकी ओर एक-एक कर देखा। फिर एकाएक उसकी उंगली चिराग की ओर उठी। "और यह कहानी लिखी… चिराग घोषाल ने।" कमरे की हवा अचानक भारी हो गई। चिराग चौंका। "क्या बकवास है!" उसने चिल्लाया, "तुम्हारे पास सबूत क्या है?"
जयवर्धन ने बिना उत्तेजना के जवाब दिया, जैसे हर शब्द तराशा हुआ हो — "तुम्हारे हाथ की स्याही — ब्लू ब्लड इंक, जो प्रोफेसर ने कभी इस्तेमाल नहीं की, लेकिन तुम्हारे हाथों पर उसी की छाप मिली।"
"तुम्हारा नाम रिसर्च से हटाना — एक गहरी चोट थी, और तुम्हारे अहंकार ने तुम्हें लेखक बनने के बजाय, खलनायक बना दिया।" "और सबसे बड़ा सबूत — तुम खुद लेखक बनना चाहते थे।
पर याद रखो — एक लेखक सिर्फ कल्पना नहीं करता, वह सत्य को जीता है। और तुम…बस एक नकली लेखक बने —जो अंत तक खुद को ही एक्सपोज़ कर बैठा।"
चिराग कुछ पल तक चुप खड़ा रहा। फिर उसके चेहरे से खून जैसे उतर गया हो। उसकी आंखें काँपने लगीं… और होंठ फड़के — मानो कुछ कहना चाहता हो, लेकिन शब्द नहीं निकल रहे। उसने एक कदम पीछे लिया, और दीवार से टिक गया। मीरा ने मुँह ढक लिया। विनीत चुपचाप बैठ गया।
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जयवर्धन ने एक आखिरी नज़र उस स्टडी रूम पर डाली —जहाँ शब्दों ने कत्ल को ढँकने की कोशिश की, लेकिन सत्य ने फिर भी अपनी जगह बना ली।
आरव घोष : "आज मैंने जाना कि स
त्य कभी मरता नहीं — वो बस तब तक चुप रहता है, जब तक कोई जयवर्धन उसे ढूंढ न ले।"
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समाप्त — परंतु सत्यसंधान जारी रहेगा…
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डिस्क्लेमर (Disclaimer):
> यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है और इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन करना है।
इसमें दर्शाए गए स्थान, पात्रों, घटनाओं या संस्थानों का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध नहीं है।
यदि किसी नाम, स्थान या परिस्थिति की समानता वास्तविकता से प्रतीत होती है, तो वह सिर्फ एक संयोग है।
इस कहानी में वर्णित विचार, संवाद और घटनाएँ लेखक की सृजनात्मक कल्पना का हिस्सा हैं और इनका कानूनी या सामाजिक रूप से समर्थन नहीं किया जाता।
कृपया इसे एक रहस्यमय कथा के रूप में लें, न कि किसी वास्तविक घटना के रूप में।

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