चौकन्ना गाँव की रहस्यमयी रातें
Disclaimer:
नोट: यह कहानी पूरी तरह से कल्पना पर आधारित है और केवल एंटरटेनमेंट के लिए बनाई गई है। इसमें वर्णित घटनाएँ, स्थान और पात्र काल्पनिक हैं। कृपया इसे अंधविश्वास या तथ्य न मानें।
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| चौकन्ना गाँव - जहाँ सोने की कीमत ज़िंदगी होती है |
भाग 1: गाँव जहाँ नींद नहीं आती...
मैं, राघव सैनी — एक स्वतंत्र पत्रकार। अजीबोगरीब जगहों और घटनाओं पर रिपोर्ट बनाना मेरा जुनून है।
मुझे एक मेल मिला —
"अगर आप वाकई रहस्यों की परतें खोलना चाहते हैं, तो 'चौकन्ना गाँव' आइए... पर ध्यान रखना, यहाँ नींद मौत है।"
मेल में कोई नाम नहीं था, बस लोकेशन — उत्तराखंड के भीतरी पहाड़ी इलाकों में बसा एक अनजाना गाँव।
पहुँचने में दो दिन लगे। गूगल मैप्स भी अंतिम 20 किलोमीटर के बाद बंद हो गया। रास्ता जंगलों और चुप्पी से भरा हुआ था। गाँव में घुसते ही जो पहली चीज़ मैंने नोट की — कोई भी आदमी ऊँघता हुआ नहीं था। सबकी आँखें खुली थीं… हर समय।
भाग 2: रातें जो कभी गहरी नहीं होतीं...
मेरे रहने की व्यवस्था एक बूढ़े व्यक्ति, ‘बाबा सोम’ के घर पर हुई।
मैंने मज़ाक में पूछा, “बाबा, यहाँ सब इतनी रात को भी जाग क्यों रहे हैं?”
बाबा की आँखों में डर उतर आया — “यहाँ जो सोया, वो मरा समझो। हमें 'नींद की रानी' लेने आती है।”
मैंने सोचा, ये भी अंधविश्वास होगा... लेकिन उस रात मैंने कुछ ऐसा देखा जो मेरी रीढ़ तक जमा देने वाला था।
रात के लगभग 3 बजे… दूर झील की ओर से एक औरत की चीख सुनाई दी।
मैंने टॉर्च उठाई और बाहर भागा। झील के पास एक घर था, जहाँ लोग इकट्ठा थे।
एक 16 साल की लड़की, ‘गुड़िया’, अपने बिस्तर पर मृत पड़ी थी — आँखें खुली, मुँह से झाग निकलता हुआ।
बुज़ुर्ग बोले, “गुड़िया कल रात गलती से गहरी नींद में चली गई थी…”
भाग 3: नींद की चुड़ैल कौन है?
मैंने गाँव के इतिहास की छानबीन शुरू की। पंचायत घर में पुराने रजिस्टर और दस्तावेज़ पड़े थे।
1817 का एक लेख मिला, जिसमें दर्ज था —
"गाँव में एक महिला 'धनी' को डायन घोषित कर जला दिया गया। मरने से पहले उसने श्राप दिया — 'अब जब तक मेरी आत्मा सो नहीं पाएगी, इस गाँव का कोई भी चैन से नहीं सो पाएगा।'"
तभी से हर तीसरी रात एक औरत की परछाई लोगों के सपनों में आती है, और जो पूरी नींद सो गया, वो मर जाता है।
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भाग 4: अब मेरी बारी थी...
चौथी रात मैंने सोने का नाटक किया और कैमरा ऑन कर दिया।
करीब 2:45 AM पर कमरे में अचानक ठंडी हवा चली। लाइट झपकने लगी।
फिर वो आई…
एक औरत — उलझे बाल, लाल आँखें, और घुटनों तक लटकती ज़बान।
उसकी फुसफुसाहट कानों में पिघले शीशे जैसी घुलती —
"सो जा… तुझे बहुत थकान है… बस आँखें बंद कर दे… मैं तुझे सपनों में ले चलूँगी…"
मैंने जैसे-तैसे खुद को ज़ोर से चूटा और होश में रखा।
सुबह होते ही मैं गाँव छोड़कर सीधा शहर भागा। लेकिन जब कैमरे की फुटेज देखी — कमरे में मैं अकेला था।
कोई औरत नहीं… कोई आवाज़ नहीं… सिर्फ मैं, नींद से लड़ता हुआ।
भाग 5: लेकिन क्या ये सचमुच ख़त्म हुआ...?
एक महीने बाद दिल्ली में मेरी हालत बिगड़ने लगी।
हर रात एक ही सपना आता — वही औरत, वही आवाज़ —
"तेरे पीछे तो कोई नहीं था… तू ही आया था मेरे पास… अब वापस चल..."
अब मैं सो नहीं पाता। आँखें खुली रखता हूँ… और लिख रहा हूँ ये सब…
क्योंकि मुझे पता है — अगली बार मैं सो गया… तो शायद अगली सुबह न देख पाऊँ।
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