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वेताल – अध्याय 3

"पुनर्जागरण"


वर्तमान भारत हिमाचल की एक उपेक्षित बर्फ़ीली घाटी, सर्द हवाओं की सिसकारी से घाटी की खामोशी टूटती नहीं थी…

बल्कि और गहराती थी। जनवरी की वो रात — जब आसमान से गिरी बर्फ़ धरती को चादर की तरह ढँक चुकी थी,पेड़ों की शाखाएँ सफ़ेद बोझ से झुकी हुई थीं,

और हवा में एक ठहराव था —जैसे प्रकृति अपनी साँसें रोके खड़ी हो।


यह कोई सामान्य जगह नहीं थी। यहाँ कोई रास्ता नहीं आता,

न कोई मानचित्र इस स्थान का उल्लेख करता। यह घाटी — समय से छूटी हुई थी।और जैसे ही घड़ी ने रात के पहले पहर में दस्तक दी,वहीं, दूर एक पुराना पत्थर — जो सदियों से उसी मुद्रा में था — धीरे से काँपा।


किसी ने न देखा। पर उस पत्थर के नीचे…कोई करवट बदल रहा था।



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बर्फ़ के नीचे दबा एक पुराना शिला-गृह —जिसके चारों ओर मंत्रलिपियों से अंकित पत्थर जड़े थे। उन पर अब भी बर्फ़ की हल्की परतें थीं, लेकिन उनके नीचे कुछ था जो गर्म था —

जैसे कोई चेतना अब भी वहाँ साँस ले रही हो।


शिला के मध्य स्थित एक गोल, काले यंत्र के भीतर वही शापित आत्मा — वेताल। वो अब भी बंधा था…पर अब उसकी आँखें खुल रही थीं। और इस बार… उनमें क्रोध से अधिक जिज्ञासा थी।


"समय... बदल गया है,"

"पर क्या मेरा दोष भी मिट गया है?"

"या फिर... एक और छल प्रतीक्षा कर रहा है?"





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बाहर, घाटी के उस पार, एक बर्फ़ीला तूफ़ान उठ रहा था —

पर उसकी दिशा किसी अनदेखी शक्ति से बदल गई। बर्फ़ के बीचोंबीच, एक युवा पर्वतारोही दल का सदस्य — आरव —

भटकते-भटकते उसी घाटी की ओर बढ़ रहा था,जहाँ कोई नहीं आता… और जहाँ कोई नहीं लौटता।



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बर्फ़ गिर रही थी। धीरे-धीरे, निरंतर — जैसे आकाश खुद सफेदी ओढ़ा रहा हो। हर बर्फ़ का टुकड़ा — एक स्मृति, जो इस घाटी की चुप्पी पर गिर रही थी। ठंडी हवाएँ ऐसी थीं जैसे किसी बूढ़े देवता की साँसें — भारी, लंबी और कराहती हुई।

घाटी के दोनों ओर ऊँचे बर्फ़ीले टीले खड़े थे, मानो किसी पुराने युद्ध के साक्षी हों…और अब पहरेदार बनकर, किसी निषिद्ध रहस्य की रक्षा कर रहे हों।


यह इलाका वीरान था। न कोई पगडंडी, न कोई संकेत,

न कोई जीवन की आहट। बस एक सनाटे की आवाज़ थी —

जो कभी-कभी खुद अपने ही अंदर गूंजती थी।



इसी वीरानी में, उस रात… कुछ बदला। वहाँ कदमों की गूँज पड़ी।बर्फ़ के ऊपर नई परछाइयाँ उभरीं। गीयर बैग्स, सिर पर हेडलाइट्स और काँपते हुए पैर —छ: लोग… जो नहीं जानते थे कि वे एक निद्रित इतिहास की दहलीज़ पर खड़े हैं।





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टीम 6 सदस्य। तीन लड़के: अनय (टीम लीडर) — इतिहास में जुनूनी, पुरातन प्रतीकों का शोधकर्ता

यश — टेक एक्सपर्ट, तर्कशील और व्यावहारिक

नीरज — फोटोग्राफर, स्वभाव से शांत लेकिन गहराई से संवेदनशील



तीन लड़कियाँ: साक्षी — फोकलॉर एक्सपर्ट, पौराणिक कथाओं में रुचि

तन्वी — मेडिकल एक्सपर्ट, मजबूत और व्यावहारिक

रिद्धि — व्लॉगर, निडर लेकिन भीतर से डरती हुई



ये सभी युवा थे, शिक्षित थे, लेकिन इस जगह की ऊर्जा उन्हें धीरे-धीरे महसूस होने लगी थी।



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टीम लीडर अनय एक पुराने हस्तलिखित ग्रंथ के पीछे पड़ा था, जिसमें “लोहे के ताबूत” की एक धुँधली सी कथा थी —जिसमें एक असाधारण प्राणी को सदियों पहले ‘आकाश से गिरे लोह’ के पिंजरे में बंद किया गया था।


उसने कहा था — “निराधार किंवदंती है, लेकिन कुछ ना कुछ नीचे दफ़न है… और मैं उसे बाहर लाऊँगा।”




स्थानीय गाइड ने मना किया था, गाँव से ऊपर एक भीड़ से कटे साधु ने उन्हें देखा तक नहीं था —बस एक चेतावनी दी थी: "वो इलाका जागता नहीं है... पर अगर कोई वहाँ जाए — तो शायद उसे फिर सोने न दे..."




लेकिन अनय नहीं रुका। उसके नक्शे में उस घाटी के मध्य में एक X बना था। इस स्थान पर पहुँचना आसान नहीं था।

बर्फ़ कई फीट गहरी थी। जीपीएस अचानक बंद हो गया।

यश ने हँसने की कोशिश की लेकिन उसकी आवाज़ भी डरी हुई थी — “अप्राकृतिक हस्तक्षेप… शायद मैग्नेटिक विसंगतियां हैं।”




साक्षी ने अपनी जैकेट की जेब से रेशमी रुमाल निकालकर माथे पर रखा, मानो कोई अज्ञात डर अचानक सिर में दस्तक दे रहा हो। “या फिर…” वो धीमे से फुसफुसाई, “…प्रकृति खुद नहीं चाहती कि हम यहाँ आएँ।”




बर्फ़ के अंदर एक अनसुनी थकावट थी, जैसे ज़मीन के नीचे कोई साँस ले रहा हो। टीम ने अपने टेंट अभी नहीं लगाए थे,

वे अभी भी “X” मार्क वाले पॉइंट से कुछ मीटर दूर थे।


और तभी, उनके हेडलैम्प की रोशनी में कुछ चमका… एक पत्थर — बिल्कुल समतल और घिसा हुआ, जिस पर उकेरे गए थे कुछ नाग लिपि के समान चिन्ह…और उसके मध्य में बना था एक त्रिकोण, जिसके केंद्र में बर्फ़ नहीं जम रही थी।




अनय ने धीमे से कहा — “यहां था…” लेकिन शायद… वहाँ कोई पहले से ‘जाग’ रहा था।


…….



हवा अचानक थम गई थी… और सबकुछ सुनसान सा लगने लगा। नीरज एक सूखी झाड़ी को पार कर ही रहा था कि —

“धप!”

उसका पैर अचानक किसी फिसलन पर पड़ा, और वह घुटनों तक धँस गया।


“नीरज!” यश और रिद्धि लपके उसकी ओर। पर तभी अनय की आँखें चमक उठीं —उसने झुककर बर्फ़ हटानी शुरू की।

नीरज का हाथ किसी सख़्त, जालीदार चीज़ पर पड़ा था —

लोहे की सतह… जो पूरी तरह बर्फ़ से ढकी हुई थी।


अनय लगभग चिल्ला पड़ा —“यही है! मैं सही था… देखो!”

उसने पागलों की तरह बर्फ़ हटानी शुरू की। यश और रिद्धि को कुछ समझ नहीं आया, पर वे भी मदद करने लगे।


कुछ ही देर में —एक गोल धातु की आकृति दिखाई दी।

एक ताबूत… धातु का बना हुआ…जिस पर वक़्त की धूल और बर्फ़ की परतें चिपकी थीं।


उसके बीचोंबीच —चार कोनों से जुड़ा त्रिकोण,और त्रिकोण के मध्य — एक रक्त बूँद की आकृति। अनय की साँसें तेज़ हो चुकी थीं।


“केवल रक्त ही इसे खोल सकता है…”

उसने बुदबुदाया — वो ग्रंथ की वही रहस्यमयी पंक्ति याद कर रहा था जो उसने बरसों पहले पढ़ी थी।


यश ने उसका हाथ रोका —“अनय, नहीं! तू पागल हो गया है क्या? ये कुछ भी हो सकता है…”


रिद्धि की आवाज़ में डर था —“हम यहाँ कोई प्राचीन श्राप खोलने नहीं आए हैं…”


लेकिन अनय… वो किसी और ही दुनिया में था। उसकी आँखों में कुछ था — जुनून? या शायद कोई पुराना वादा?

उसने चुपचाप अपनी जेब से एक छोटा चाकू निकाला… अपनी हथेली पर एक महीन सा चीरा लगाया। खून की एक बूंद उभरी — लाल, गर्म और ज़िंदा।


“अनय, नहीं!!”यश चिल्लाया…पर तब तक वो बूँद ताबूत की सतह पर गिर चुकी थी।



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तत्क्षण… एक हल्का कंपन पूरी ज़मीन में दौड़ा। बर्फ़ धीरे-धीरे किनारों से खिसकने लगी…चारों ओर के पेड़ जैसे झुकने लगे उस बिंदु की ओर। हवा — जैसे सहम गई हो।

एक अजीब-सी खामोशी फैल गई।


ताबूत पर उकेरे त्रिकोणीय यंत्र चिह्न धीरे-धीरे लाल रंग में चमकने लगे। और फिर —“ठक!” एक तेज़ ध्वनि…और ताबूत का ढक्कन झटके से खुल गया।



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तीनों पीछे हट गए। अंदर से धुएँ का एक घना गुबार उठने लगा —काला, जैसे राख में लिपटा हो। और फिर उस धुएँ के बीच से…एक परछाईं उभरी।


कोई आकृति थी… पर चेहरा नहीं।सिर्फ़ काले धुएँ जैसी मानव आकृति, जो ज़मीन से कुछ इंच ऊपर तैर रही थी।


रिद्धि की साँसें अटक गईं —“क… कौन है तू?”


और तभी —एक गूँजती हुई, पर रहस्यमयी आवाज़ —

मानो पहाड़ियों से टकराकर लौट रही हो… “शताब्दियाँ बीत गईं… पर अंततः…दरवाज़ा खोला गया…”




यश ने अनायास पीछे देखा —पर उसका चेहरा सफ़ेद पड़ चुका था।अनय…वो बस मुस्करा रहा था।




चमकती टॉर्च की रौशनी अचानक लड़खड़ाने लगी। वहाँ, उस अँधेरे में… कुछ खड़ा था। सबकी साँस थमी। और फिर…

उसने एक क़दम आगे रखा — सामने खड़ा था — वेताल।


उसका चेहरा जैसे अधूरी राख में सना हुआ हो, आँखें राख जैसी शांत… लेकिन पलकों के नीचे कभी-कभी अंगारे जगमगाते। शरीर ऐसा, जैसे किसी युद्धभूमि की अधजली लकड़ियों से बना हो —लेकिन उसमें से कुछ टपकता था…

कोई शक्ति, कोई चेतना, कोई ऐसा वजूद… जो अब इंसानी नहीं रहा।


वो खड़ा था — लंबा, स्थिर… लेकिन मौन नहीं। उसके होंठ धीमे-धीमे हिलते थे।एक गहरी, थरथराती आवाज़ फुसफुसाई — “मुझे… किसने… जगाया…?”




टीम पीछे हट गई। तन्वी की साँस अटक गई, रिद्धि का मुँह सूख गया। लेकिन अनय वहीं खड़ा रहा। उसकी टॉर्च अब फर्श पर गिर चुकी थी। उसके हाथ से अब भी खून बह रहा था —जिसे छिलते हुए उसने उस लोहे की पटिया को खींचते वक़्त ज़ख़्मी कर लिया था।


वेताल की आँखें अब उसी हाथ पर आ टिकीं। वो एक क्षण के लिए स्थिर हुआ… फिर उसकी आवाज़ दोबारा गूँजी — “तेरा रक्त… वही रक्त है… जो दरवाज़ा खोल सकता था…”




अनय की आँखें फैल गईं। “मैंने… मैं तुम्हारा सत्य जानना चाहता था…” — उसने काँपते स्वर में कहा। वेताल की आँखें ठहरती हैं… जैसे कोई भूली हुई याद लौट आई हो। “तो सुन… जब मुझे क़ैद किया गया था,मेरे भीतर कुछ ऐसा था — जो मुझसे अलग हो गया…और वो अलग हिस्सा बना ‘अरण्य’। वही बना जंगलों का वेताल। मेरी छाया… मेरा विकृत अंश…जिसे मैंने नहीं, इस शापित समय ने जन्म दिया।”



वेताल अब धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उसके क़दमों की आहट नहीं थी, लेकिन ज़मीन पर पड़ी धूल अपने आप उसके रास्ते से हटती जा रही थी।पीछे खड़े बाकी सभी — साक्षी, यश, रिद्धि और नीरज — अब पीछे खिसकने लगे।


साक्षी की साँसें काँप रही थीं। “हिलना मत… हिलना मत…” वो खुद से बुदबुदा रही थी।


लेकिन वेताल की आँखों में अब कुछ और था —कोई क्रोध नहीं…कोई दया भी नहीं…उसने अनय की ओर हाथ बढ़ाया — न छूने के लिए, बल्कि महसूस करने के लिए। “तू मेरा द्वार है…” वेताल फुसफुसाया —“और अब तुझे भी पूर्ण करना होगा…”




अनय का गला सूख गया। उसका शरीर काँप रहा था — लेकिन उसकी आँखें अब भी उस प्राचीन सत्ता से टक

रा रही थीं।“क्यों…? क्यों मैं…?” — उसने फुसफुसाकर पूछा।




वेताल की आँखों में अब एक क्षण का अँधेरा चमका।

और उसने उत्तर दिया — “क्योंकि हर वेताल को चाहिए — उसका उत्तराधिकारी।”