वेताल: अध्याय 2
लगभग 1100 वर्ष पूर्व मालवा का एक वीरान प्रांत, रात के तीसरे प्रहर में जंगल की निस्तब्धता में एक चीख़ गूँज चुकी थी…
घना अंधेरा था। और उस अंधेरे के बीच एक अकेला घोड़ा सरपट भाग रहा था उसके खुरों की आवाज़ मानो उस वीराने में एकमात्र जीवन का संकेत थी। पर अब… वो आवाज़ धीमी पड़ रही थी। घोड़े की सांसें फूली हुई थीं, और उस पर बैठा सवार विक्रम, थक कर रुक गया।
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उसने लगाम खींची, और जंगल की एक सुनसान पगडंडी पर उतर आया। पसीना उसके माथे से टपक रहा था, पर वो गर्मी का नहीं… डर का पसीना था।
उसने धीरे से पीछे मुड़कर देखा चारों ओर घना अंधकार फैला हुआ था। ना कोई पीछा कर रहा था, ना कोई दिख रहा था…
पर कोई था। वो सिर्फ़ पीछा नहीं कर रहा था वो इंतज़ार कर रहा था… कि विक्रम रुके।
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विक्रम एक योद्धा था। उसने कई युद्ध लड़े थे, कई राजाओं को झुकाया था। पर आज उसके हाथ काँप रहे थे। “शरीर थकता है, विक्रम…पर आत्मा जब काँपे, तो समझ लेना कि अपराध कर बैठा है।”— गुरु वाचस्पति की वो बात अब हू-ब-हू कानों में गूंज रही थी।
एक और याद…गुरुकुल की वह रात…जब सब सो रहे थे,
और विक्रम — छिपकर उस “रक्त-ज्योतिष ग्रंथ” को पढ़ने चला गया था…जिसे सदियों से शापित कहा गया था। जिसे पढ़ना केवल उन साधकों के लिए था, जिन्होंने मृत्यु को साध लिया हो।
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“तूने उस विद्या को छुआ… जिसे छूना मना था,”
“तूने रुधिर की राह चुनी, विक्रम। अब परिणाम भोग।”
— यही थे गुरु के अंतिम शब्द, जब उन्होंने विक्रम को गुरुकुल से निष्कासित किया था।
विक्रम ने सोचा था शक्ति पा लूँगा, फिर सब ठीक कर लूंगा।
पर शक्ति ने उसे नहीं छुआ बल्कि वो खुद शक्ति की भूख में शापित हो गया।
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अब वो जंगल में था। अकेला… पर दरअसल सबसे ज्यादा घेरे में। उसने पेड़ की एक जड़ पर बैठकर थोड़ी देर आँखें बंद कीं। पर तभी…जंगल की निस्तब्धता में एक अजीब सी आवाज़ उठी — “विक्रम…”
वो आवाज़ किसी की नहीं थी वो जैसे खुद जंगल का निचोड़ थी। विक्रम ने आँखें खोलीं हवा रुक गई थी। पेड़ हिलना बंद कर चुके थे। और सामने एक धुँधला साया। पर विक्रम उसे नहीं जानता था। वो बस समझ गया…ये वही शाप है, जिसका दरवाज़ा उसने खोला था।
“अब भाग नहीं सकता, विक्रम…”
“तूने जो पढ़ा — वो अब तुझे छोड़ेगा नहीं।”
“तू जीवित रहेगा…पर हर रात तुझमें कुछ और मरता जाएगा।” विक्रम कुछ बोल नहीं पाया। क्योंकि आवाज़ उसकी नहीं रही थी।
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वो धीरे-धीरे उठता है जैसे कोई और उसकी देह से उसे चला रहा हो। उसके माथे से खून की एक बूँद टपकती है…और धरती उसे सोख लेती है, मानो सौगंध ले रही हो अब ये रुधिर उसकी विरासत है।
श्रापित रात्रि की ये सिर्फ़ शुरुआत थी। और अगले ही पल…
जंगल में फिर एक चीख़ गूँजी पर इस बार विक्रम की नहीं…
किसी अज्ञात प्राणी की थी जो अब शिकार पर निकला था।
………….
उसी रात, तीसरे प्रहर के कुछ समय पश्चात विक्रम अब गाँव में नहीं था। वो भाग चुका था न केवल लोगों से…बल्कि उस निर्णय से, जिसे उसने खुद लिया था… उस “विद्या” को छूने का।
अब उसके कदमों ने उसे पहुँचाया था एक ऐसी जगह, जहाँ धरती भी साँस लेने से डरती थी। एक पुराना खंडहर…जो कभी किसी भयंकर तांत्रिक की गुफ़ा हुआ करता था।
गुफ़ा की दीवारें अब भी सांस ले रही थीं। उन पर रक्त से बने अधजले मन्त्र कुछ उल्टे, कुछ अधूरे…जिन्हें देखने भर से आँखें जलने लगें। छत से लटकते सूखे पत्तों और नींबू-मिर्च की माला अब सिर्फ़ स्मृति थी, सुरक्षा नहीं।
जमीन पर बिखरे थे: भभूत से घिरे त्रिकोण, जल चुके दीपक,
और काले पत्थरों पर उकेरे गए यंत्र,जिन्हें सिर्फ़ वे देख सकते थे, जिनका मन अब निष्कलंक न रहा हो।
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पर इस पूरी गुफ़ा में सबसे अजीब चीज़ थी बीचों-बीच रखा हुआ एक भारी, लोहे का ताबूत। काला, ज़ंग लगा हुआ…
उसके किनारों पर कुछ खुदा हुआ था कोई भाषा… जो अब इंसानों की दुनिया से मिट चुकी थी।
विक्रम चुपचाप उस ताबूत के पास पहुँचा। उसकी आँखों में थकान नहीं, एक अजीब किस्म की स्वीकारोक्ति थी।
"अब जब तूने सब छोड़ ही दिया, विक्रम…तो क्यों न अपनी आत्मा भी गिरवी रख दे?" भीतर से आती एक कर्कश फुसफुसाहट…जो उसकी नहीं थी, फिर भी उसी की लगती थी।
उसने अपने झोले से एक छोटा, कटा-सा खंजर निकाला।
धार अब भी तेज़ थी पर उसकी मंशा उससे कहीं ज़्यादा नुकीली। विक्रम ने अपनी हथेली आगे बढ़ाई और बिना पलक झपकाए,उस पर गहरा चीरा लगा दिया।
रक्त टपका गाढ़ा, गर्म और वादा तोड़ चुका। वो कुछ बूँदें उसने ताबूत के ऊपरी भाग पर टपका दीं सावधानी से,
जैसे किसी पुराने समझौते की आख़िरी शर्त पूरी कर रहा हो।
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और तभी…ताबूत ने पहली बार हिलना शुरू किया। एक धीमी गड़गड़ाहट जैसे सदियों से रुकी कोई साँस अब बाहर निकलने को छटपटा रही हो।
विक्रम पीछे हट गया। पर उसकी आँखें ताबूत पर टिकी रहीं उत्सुकता और भय के बीच झूलती हुईं। ताबूत के चारों ओर रखे यंत्र अब खुद-ब-खुद जल उठे। नीली-पीली ज्वालाएँ बिना तेल, बिना बाती। अचानक गुफ़ा का तापमान गिरने लगा।
ताबूत के भीतर से एक सिहरन भरी साँस निकली —
"रुधिर… जागरण का प्रथम स्वर है…"
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और तभी ताबूत का ढक्कन धीरे-धीरे खुला…एक अंधकार उसमें से बाहर बहने लगा, जैसे कोई स्मृति हो…या शायद कोई चेतना,जो अब फिर से जन्म लेने को तैयार थी।
विक्रम वहीं खड़ा रहा…अब न वो विक्रम था, न योद्धा…
अब वो एक पात्र बन चुका था एक तंत्र की कहानी का,
जो शाप से शुरू होती है… और मृत्यु पर भी खत्म नहीं।
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खंडहर के गर्भगृह में लोहे का ताबूत अब कंपन कर रहा था। उसके भीतर से आ रही थी किसी अदृश्य साँस की आवाज़ जैसे सदियों से बंद एक प्राणी अब जाग रहा हो। विक्रम की हथेली से टपके रक्त की आख़िरी बूँद जब ताबूत पर गिरी तब एक भयानक सिहरन पूरे खंडहर में फैल गई।
अचानक ताबूत पर लगे सारे ताले अपने-आप टूटने लगे,
और ताबूत की ढक्कन धीरे-धीरे ऊपर उठी…भीतर से निकला… गाढ़े धुएँ का भँवर जिसके बीचों-बीच एक आकृति आकार ले रही थी।
गूँजती हुई आवाज़ ने खंडहर को चीर दिया —“रक्त की आहुति दी गई है…क्या तू तैयार है… अपने प्राणों के बदले अमरता लेने को…?”
विक्रम ठिठका। उसकी साँसें रुकी हुई थीं। धुएँ में से अब जो आकृति प्रकट हुई, वो इंसान नहीं थी…वो था…ब्रह्मराक्षस।
उसकी आँखों में लाल अंगारे सुलग रहे थे,और देह से उड़ती राख, जैसे उसका अस्तित्व किसी श्मशान से उठकर आया हो। उसके होंठ हिले और वो मुस्कराया। “विक्रम…तू जानता है क्या मांग रहा है?”
विक्रम ने सिर झुकाया। उसकी आवाज़ काँप रही थी, फिर भी दृढ़ थी — “मैं अपना जीवन त्यागने को तैयार हूँ…बस मुझे वो शक्ति दो… जिससे कोई मुझे झुका न सके।”
ब्रह्मराक्षस अब उसके बेहद क़रीब आ चुका था। उसकी साँसों से हवा में गर्मी घुल गई थी। वो झुका, और धीरे से बोला —
“शक्ति तुझे मिलेगी… विक्रम। लेकिन याद रख वो शक्ति तुझे अकेला कर देगी। तू ज़िंदा रहेगा… पर मौत तुझे तरसाएगी।”
विक्रम की आँखों में अब भी कोई झिझक नहीं थी। उसने एक आख़िरी बार ताबूत की ओर देखा,और फिर अपनी छाती चीर दी… उसी खंजर से। रक्त की धार उस तंत्र-मंडल पर फैल गई और तभी…पूरा खंडहर हिल गया। जैसे किसी दैवीय बल ने प्रवेश कर लिया हो।
ब्रह्मराक्षस ने अपने दोनों हाथ विक्रम की ओर फैलाए और जैसे ही उसकी राखी हथेली विक्रम के रक्त से भीगे हृदय पर रखी गई एक भयानक चीख़ गूँजी…"तेरे रुधिर से अब दो मार्ग खुल चुके हैं — एक जो इस ताबूत में क़ैद रहेगा…
और दूसरा जो कहीं दूर… समय की धार में बहते हुए किसी और देह को खोजेगा…वो अंश तू नहीं होगा, पर तुझसे जुदा भी नहीं।"
खंडहर की दीवारें फटने लगीं। तंत्र-यंत्र जलकर राख हो गए।
और वहाँ… जहाँ कभी विक्रम था अब खड़ा था विक्रमेताल।
उसकी आँखें अब इंसानों जैसी नहीं थीं…बल्कि ब्रह्मराक्षसी ज्वाला की तरह जल रही थीं। और आसमान की दिशाएँ थरथरा उठीं…क्योंकि…अब जो जागा था… वो सिर्फ़ अमर नहीं था — वो अविनाशी शाप था।
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ब्रह्मराक्षस ने अपनी जली हुई सी हड्डीनुमा अंगुली विक्रम के माथे पर रख दी। अंगुली छूते ही विक्रम की देह काँपने लगी उसकी आँखें धीरे-धीरे उलटने लगीं, जैसे उसकी आत्मा किसी गहरे अंधकार में डूब रही हो।
एक जलती हुई लकीर उसके माथे पर उभर आई, और वहीं से उसके शरीर में काली, धुआँसी नसें फैलने लगीं। वो चीख़ा — मगर आवाज़ घुटकर रह गई। उसके नाखून लम्बे और धारदार हो गए…दाँत जैसे तिरछे हो उठे — जैसे किसी आदमखोर के हों। चेहरे पर पपड़ी-सी काली परतें चढ़ने लगीं — और शरीर से धुँआ निकलने लगा।
धीरे-धीरे…विक्रम अब इंसान नहीं रहा। वो अब बन चुका था — ‘वेताल’।
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चारों ओर सन्नाटा छा गया। पेड़ों की छालें अपने आप झड़ने लगीं। जैसे प्रकृति ने भी सिर झुका लिया उस नये शापित प्राणी के सामने। ब्रह्मराक्षस ने विक्रम को घूरा, और उसकी गूँजती आवाज़ फिर फिज़ा में तैर गई — “तू अमर है, विक्रम… लेकिन ये अमरता कोई वरदान नहीं — ये तेरा अभिशाप है।”
“तेरे कर्म तुझसे छीने जाएँगे। तू शक्ति से भरपूर होगा… मगर तन्हा। हर जन्म, हर काल में तुझसे सब डरेंगे… लेकिन तेरा कोई नहीं होगा।”
“तेरे जीवन का अंत तब तक नहीं होगा, जब तक एक ‘नर-पिशाच’ की आत्मा तुझे मुक्त न कर दे, वो आत्मा जो ख़ुद अधम हो, मगर त्याग की पराकाष्ठा करे।”
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वेताल की आँखें अब लाल नहीं, गहरी राख जैसी थीं। और तभी ब्रह्मराक्षस ने एक लोहे का विशाल ताबूत प्रकट किया जिसकी दीवारों पर दुर्लभ यंत्र और मन्त्र खुदे थे। चारों कोनों से उठते शमशान-धुएँ ने उस ताबूत को ढँक लिया।
"जैसे-जैसे वो ताबूत में समा रहा था, उसकी चेतना का एक कण… ताबूत से पहले ही फिसल चुका था —ब्रह्मराक्षस मुस्कराया… उसने सब देखा, पर कुछ नहीं कहा — शायद यही नियति थी।"उसका शरीर शापित अनुबंध में बंध चुका था। फिर ब्रह्मराक्षस ने एक मंत्र फूँका।
“ॐ मृत्युतर्पणाय वेतालबन्धनाय नमः…”
और उस लोहे के ताबूत पर एक मोहर जड़ी गई —
जिसे खोलने की शक्ति सिर्फ़ ‘विशेष रक्त की एक बूँद’ में थी।
वह ताबूत हिमगुफाओं में दफ़न कर दिया गया, जहाँ किसी ने जन्म ही न लिया हो…और जहाँ मृत्यु भी कदम रखने से हिचकती हो।
अब वेताल सो रहा था। न शांति में, न मृत्यु में,बल्कि उस इंतज़ार में कि कोई, कहीं, एक दिन…उसका ताबूत खोले… और शाप टूटे।
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सदियों बीत गए। राजा मिट गए, गढ़ टूट गए, और जंगलों ने सब कुछ निगल लिया। कभी जहाँ शाही मार्ग था, वहाँ अब झाड़ियों और सूखी बेलों की बस्ती थी। खंडहर अब महज़ पत्थरों का ढेर
थे —लेकिन ज़मीन के नीचे…वो ताबूत अब भी वैसा ही था मंत्रबद्ध, लोहे से सील"…और धरती की किसी और कोख में वो बिछुड़ा अंश,जन्म लेने की प्रतीक्षा कर रहा था —एक नई देह, एक नया नाम, पर वही पुराना श्राप…” ‘वेताल’।
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