वेताल भाग 4
बर्फ़ीली घाटी अब भी उतनी ही ख़ामोश थी, लेकिन उस प्राचीन ताबूत के चारों ओर हवा अब किसी पुराने नियम पर नहीं चल रही थी।
वो अब ज़िंदा लग रही थी — जैसे किसी अदृश्य शक्ति की साँसें घाटी की साँसों से टकरा रही हों।
हवा के रुख़ में कुछ था जो प्राकृतिक नहीं था…
हवा अब एक कथा कह रही थी — और ताबूत उसका केंद्र बन चुका था।
अचानक—
ताबूत के चारों ओर बर्फ़ ज़मने की बजाय पिघलने लगी।
बर्फ़ का घेरा स्याह धुएँ में बदलने लगा।
और तभी—
एक छाया… एक आकृति… एक स्वरूप… उठ खड़ा हुआ।
वेताल।
कई शताब्दियों से जिस चेतना को पत्थरों ने बाँध रखा था…
अब वो फिर खड़ा था —
प्राचीन, विकराल और अडोल।
उसकी आँखें —
जैसे आग में डूबे दो कुंड।
चेहरे पर वो वीरता भी थी और एक ग़हराई भी… जो मौत को भी झुका दे।
वो सीधे अनय की ओर देख रहा था —
अनय, जो अब भी ताबूत के सामने जड़वत खड़ा था,
उसके साथी घबराए, काँपते हुए पीछे खड़े थे।
उन्होंने अनय को खींचना चाहा — लेकिन उसके पैरों में कुछ जकड़ गया था। जैसे कोई पुराना ऋण उसे वहीं रोके हुए था।
वेताल ने अपना मुँह खोला — उसकी आवाज़ धुँधली थी, लेकिन जैसे पूरी घाटी में गूंज उठी।
"तेरा रक्त… द्वार था। लेकिन अब तू ही मेरा उत्तराधिकारी होगा।"
अनय का चेहरा फक पड़ गया। उसका गला सूख गया, आवाज़ काँपती हुई निकली —
"मैं… मैं कोई उत्तराधिकारी नहीं हूँ…"
वेताल कुछ पल चुप रहा।
उसकी आँखों में एक झलक आई — जैसे वो किसी बहुत पुराने दुख को देख रहा हो।
"तेरे शब्द… मुझे मेरे ही जैसे लगते हैं…"
"जब मैंने भी कहा था — ‘मैं ये नहीं चाहता।’"
वो आगे बढ़ा — उसकी हर चाल के साथ बर्फ़ पिघलती जाती।
"लेकिन फिर भी… समय ने मुझे चुना।"
अब उसकी आँखें चमक रही थीं।
"और अब वही समय… तुझे भी छू चुका है।"
अनय की साँसे तेज़ हो चुकी थीं।
उसके हाथ काँप रहे थे, लेकिन उसकी आँखें — अब वे झुक नहीं रही थीं।
उसने खुद से पूछा —
"ये क्या हो रहा है? ये कौन है? और… क्यों मैं?"
लेकिन जैसे ही उसकी नज़र फिर वेताल की ओर गई, उसके भीतर कुछ बदलने लगा।
एक धीमा, पुराना संगीत… जैसे किसी और जन्म की याद।
जैसे कोई कह रहा हो —
"यही तो तू था… जिसने मुझे जगाया है।"
—
बर्फ़ीली घाटी का दूसरा छोर, आधी रात के बाद — हवाएँ पहले से तेज़ चल रही थी, और कहीं दूर, एक बार फिर वही ‘घंटी’ की सी आवाज़ सुनाई दी।
एक वीरान पेड़ की आड़ में पाँचों अब एक साथ खड़े थे —
साक्षी, यश, तन्वी, रिद्धि और नीरज।
उनके आसपास बर्फ़ तो थी… लेकिन अब वह शांत नहीं रही — हर कुछ सेकंड में मानो ज़मीन के नीचे से कोई अनसुना कंपन उठता।
यश ने हाँफते हुए इधर-उधर देखा, फिर फुसफुसाकर कहा —"हमें निकल जाना चाहिए, अभी…"
तन्वी कांपते होठों से बोली —"अनय कहाँ है? वो वहाँ था… उस ताबूत के पास—"
यश झुंझला गया, "मुझे नहीं पता! लेकिन अगर हम यहीं रुके तो हम सब—"
"चुप रहो," साक्षी ने एक सख़्त लेकिन संयमित आवाज़ में कहा।
उसके चेहरे पर हल्का डर ज़रूर था, लेकिन आँखों किसी पहेली को सुलझाने की ज़िद भी थी।
"ये सब अचानक नहीं हो रहा… वो ताबूत, वो आवाज़… और अब अनय… ये कोई कहानी नहीं, ये सब कुछ लिखा गया है… और हम सभी उसके पन्नों में हैं।"
नीरज अब भी अपने कैमरे को जाँच रहा था — उसका लेंस अब भी वहीं केंद्रित था, जहां वेताल अनय के सामने खड़ा था।
"तुम्हारा कैमरा अब भी चालू है?" रिद्धि की आवाज़ में विस्मय था।
नीरज धीमे से मुस्कराया — एक थकी हुई, लेकिन सनकी मुस्कान।
"हाँ… और शायद अब तक की सबसे सच्ची फिल्म बन रही है…"
हवा अचानक उनके इर्द-गिर्द घूमी — एक सायं-सायं करती ठंडी साँस… जैसे कोई अदृश्य चीज़ उनकी बातचीत सुन रही हो।
एक पल को सबने एक-दूसरे की ओर देखा —
कहीं बहुत दूर, एक भारी ध्वनि हुई — जैसे बर्फ़ का कोई पुराना दरवाज़ा खुला हो।
तन्वी: “वो क्या था?”
यश: “मुझे नहीं पता… लेकिन हमें अब यहाँ से—”
साक्षी (काटती है): “अगर ये सच में कहानी है… तो इसका आख़िरी पन्ना वहीं लिखा जाएगा — जहाँ अनय खड़ा है।”
रिद्धि: “तुम पागल हो गई हो क्या? वहाँ जाना मतलब मौत को बुलाना है!”
साक्षी: (धीरे से, बर्फ़ पर एक क़दम आगे बढ़ाते हुए)
"या शायद… सच को छूना…"
सन्नाटा एक बार फिर भारी हो गया।
और उस सन्नाटे में… एक धीमी सी फुसफुसाहट तैरती चली आई —
“जो बचे हैं… वो गवाह हैं… और गवाह… कभी पूरी तरह ज़िंदा नहीं रहते।”
सबने एक साथ पीछे मुड़कर देखा… लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
सिर्फ़ बर्फ़… और पिघलती हुई रात।
—
अतीत — वेताल की दृष्टि से
चारों ओर अंधकार था।
पर वह कोई सामान्य अंधकार नहीं था —
वह चेतना से बना था, धुएँ की तरह घुमड़ता, सरसराता, जैसे किसी विलीन हो रही आत्मा की अंतिम साँसें हों।
“जब मुझे ताबूत में कैद किया गया…”
“तब मेरी आत्मा पूरी तरह एक नहीं रही।”
वेताल की स्मृति में वो रात अभी भी जीवित थी।
अंतहीन मंत्रों के बीच, उसकी देह लोहे के सलीब पर कसी जा रही थी। ब्रम्हराक्षस ने उसे ‘नागशिला’ के भीतर बंद कर दिया था —
उन यंत्रों के साथ जो ‘विभाजन’ का कार्य करते थे।
“जो पवित्र था, वो यंत्रों में बंध गया…”
उसका वह भाग — जो शांति चाहता था, जो ज्ञान, साधना और मौन की ओर था —
वह उसी ताबूत में कैद रहा।
वह हिस्सा समय के साथ मौन होता गया… लेकिन पूर्णता की ओर बढ़ता रहा।
पर एक और भाग था —
“और जो विकृत, जो मेरे श्रापों का धुआँ था…”
वो हिस्सा नहीं मरा।
वो अलग हुआ।
घुला — उन देवदार के जंगलों में, जहाँ कभी यज्ञ की राख पड़ी थी।
वहाँ उस विकृत चेतना ने एक नया रूप लिया…
न कोई देह, न कोई नाम… सिर्फ़ वन की अंधी जड़ें और हवाओं से बना एक साया —
“और जंगलों में भटकते-भटकते बना — ‘अरण्य’…”
एक प्रेतछाया, जो न मृत्यु थी, न जीवन…
जो बस उन साँसों से जीवित थी, जो डर के साथ ली जाती थीं।
“उसने जीवन चुना, लेकिन अँधकार में…”
“मैंने मृत्यु को स्वीकारा, लेकिन पूर्णता में।”
अब वे दो नहीं थे…
बल्कि दो छोर थे एक ही अस्तित्व के।
एक कैद है…
दूसरा आज़ाद…
पर जब दोनों फिर मिलेंगे — तब न अंत होगा, न आरंभ…
बस होगा ‘पुनर्जागरण’।
—
वर्तमान — हिमगहनों की गहराई में
साँसें रुकी हुई थीं… समय भी जैसे चुपचाप देख रहा था।
अनय अब वेताल के क़रीब आ गया था। उसके चेहरे पर भय नहीं था — बल्कि एक अजीब-सी करुणा थी… शायद पहली बार किसी ने वेताल को इंसान की तरह देखा।
“अगर मैं उत्तराधिकारी बनूँ…
तो क्या मैं भी तुम सा ही बन जाऊँगा?” — अनय की आवाज़ काँपती नहीं थी, लेकिन भीतर सवालों की आँधी थी।
वेताल की आँखों में हलचल हुई। वो मुस्कराया नहीं… वो थका हुआ था। वो एक बिखरी स्मृति की तरह मुस्कराया।
“उत्तराधिकारी वही होता है —
जो स्वयं को स्वीकारे,
ना कि वह जो सबकुछ छोड़ दे।”
उसके शब्दों में कोई उपदेश नहीं था… बस एक पश्चाताप था — और शायद थोड़ी सी आशा भी।
“मैंने खुद को कभी स्वीकारा नहीं, अनय।
मैंने केवल विरोध किया — अपनी नियति से, अपने स्वरूप से…
और जब मैंने युद्ध किया अपने ही ‘अंतर’ से…
तो मैं दो हो गया।”
अनय चुप था लेकिन उसकी आंखों में अब डर नहीं था।
अचानक —
हवा बदल गई। धुएँ की रेखाएँ — जो अब तक धीरे-धीरे तैर रही थीं — वेताल के चारों ओर एक चक्र बनाने लगीं। वेताल का ताबूत… जो वर्षों से निष्क्रिय पड़ा था… उसकी सतह पर नीली दरारें बनने लगीं।
किर्र्र्र्रर्र्रर…
एक पुरानी ध्वनि गूँजी — जैसे कोई पुराना यंत्र पुनः सक्रिय हो गया हो।
ताबूत के ठीक मध्य से एक चमकता हुआ यंत्र धीमी गति से बाहर आने लगा।
वो एक त्रिकोण था।
तीन कोनों वाला, काले पत्थर से बना, उसके किनारों पर अजीब तरह की लकीरें उभरी हुई थीं — जैसे किसी भूले हुए यंत्र की लिपि।
वेताल ने काँपते हाथों से वो त्रिकोण उठाया… और अनय की ओर बढ़ा दिया।
“ये वो अंश है…
जो मेरे और ‘अरण्य’ के बीच टूटा था।
वो जो पवित्र था — मैं अपने साथ रख सका…
लेकिन जो शापित था… वो इस यंत्र से अलग हो गया था।”
अब वेताल की आवाज़ स्पष्ट लेकिन और धीमी हो रही थी।
“अब ये तेरे पास है, अनय।
तू चाहे तो मुझे मिटा सकता है —
और उस ‘वेताल’ को हमेशा के लिए समाप्त कर सकता है।
या… तू मुझे पूर्ण कर सकता है…
ताकि मैं एक हो सकूँ — और शाप भी अपने साथ ले जाऊँ।”
एक क्षण को सबकुछ रुक गया।
धुएँ की रेखाएँ अब अनय के इर्द-गिर्द मंडराने लगी थीं… और त्रिकोण अब उसकी हथेली में था।
---
क्या वो वेताल को मिटाएगा?
या उसे पूर्णता में लौटा कर, खुद उत्तराधिकारी बन जाएगा?
अभी उत्तर मौन था — लेकिन इतिहास साँसें रोक कर देख रहा था।
—
दूसरी ओर घड़ी की सुइयाँ सुबह की ओर बढ़ रही थीं…
लेकिन टीम के चेहरों पर रात अभी भी पसरी थी।
धूप अभी पूरी तरह फूटी नहीं थी, लेकिन आकाश में हल्की-सुनहरी परछाइयाँ जाग चुकी थीं — जैसे कोई प्रकाश उन्हें फिर से वास्तविकता में खींच लाने को तत्पर हो।
तन्वी धीरे-धीरे चारों ओर देखती रही — अब उस खुदाई स्थल की ओर, जहाँ वो ताबूत फिर से ज़मीन फाड़कर बाहर आया था,
जहाँ से अनय लौट ही नहीं पाया।
वो फुसफुसाई,
“अगर ये सब सच है…
अगर ये कोई मिथक नहीं, कोई पुरानी कहानी नहीं…
तो क्या हम… क्या हम पीछे हट जाएँ?”
यश ने सिर झुका लिया — उसकी आँखों में सवालों की भीड़ थी, लेकिन जवाब नदारद था।
नीरज, जो अब तक सबकुछ रिकॉर्ड करता आ रहा था, पहली बार चुप था।
उसके सामने उसका पूरा अध्ययन बिखर चुका था —
अब ये "पुरातत्व" नहीं रहा था।
अब ये "संवेदनशील" था।
तन्वी ने अब सीधे रिद्धि की ओर देखा।
“हमें तय करना होगा…
कि क्या हम इसे एक अनसुलझी रिपोर्ट मानकर छोड़ दें —
या फिर हम उस रास्ते पर बढ़ें,
जहाँ अनय गया है।”
रिद्धि ने कोई जवाब नहीं दिया — लेकिन उसकी आँखों में हलचल थी।
वो एक कदम आगे बढ़ी, फिर रुकी —
अपने बैग से वो डायरी निकाली जिसमें अनय ने आख़िरी बार कुछ लिखा था।
कुछ रेखाएँ, कुछ निशानियाँ… और एक जगह — ताबूत के नीचे खुदे तीन शब्द:
"वेताल • अरण्य • त्रिकोण"
रिद्धि ने गहरी साँस ली।
“वो अकेला नहीं रहेगा,”
उसका स्वर दृढ़ लेकिन धीमा था,
“अगर ये विरासत अनय को मिली है —
तो इसका अर्थ है, ये हम सबके जीवन को बदलने वाली है।
हम चाहें या न चाहें — अब हम भी उस कहानी का हिस्सा हैं।”
तन्वी ने सहमति में सिर हिलाया।
नीरज ने अपना कैमरा फिर से उठाया।
लेकिन अब वो दस्तावेज़ीकरण के लिए नहीं,
बल्कि साक्षी बनने के लिए था।
एक सन्नाटा चारों ओर फैल गया —
जैसे धरती भी जान चुकी हो कि कुछ वापस नहीं आएगा…
और जो कुछ सामने आएगा — वो पहले जैसा नहीं होगा।
---
और कहीं नीचे… एक धड़कन…
फिर से जाग रही थी।
……
वेताल ने अपने गहने-जड़े, शापित मस्तक को उठाया —
उसकी दृष्टि बर्फ़ से ढँके उस आकाश पर टिकी थी,
जहाँ न चाँद था, न कोई तारा —
बस एक अनकही पुकार… जैसे ब्रह्मांड भी उसके पुनर्जन्म से विचलित था।
"शताब्दियाँ गुज़र गईं..."
उसकी आवाज़ बर्फ़ में नहीं बल्कि ऐसा लगा जैसे समय में
गूँजी हो।
"…और मैं फिर जागा।
अब देखना है —
ये युग मुझे फिर से क्या नाम देता है —
राक्षस… या वेताल?"
वो स्थिर खड़ा था —
मानो इतिहास उसके चारों ओर घूम रहा हो।
अनय उसके सामने था,
उसके चेहरे पर कोई भय नहीं…
बल्कि एक ऐसी जिज्ञासा, जो रक्त से नहीं,
बल्कि आत्मा के अतीत से उत्पन्न होती है।
उसने वेताल की आँखों में सीधे झाँका —
जैसे अपने ही भविष्य का आइना देख रहा हो।
फिर उसने धीरे से त्रिकोण प्रतीक को अपनी मुट्ठी में कस लिया —
उसका स्पर्श… जैसे किसी मृत सर्प की खाल छूने जैसा था —
ठंडा, मगर ज़िंदा।
“मैं उत्तराधिकारी हूँ —
लेकिन अपने नियमों का।”
ये कोई उत्तर नहीं था —
ये एक शपथ थी, एक विद्रोह भी,
और शायद ए
क नई कथा का बीज।
चारों ओर की हवा अचानक गरज उठी —
पेड़ की शाखाएँ काँप उठीं,
सफ़ेद बर्फ़ की परतें मानो धूल बनकर उड़ने लगीं।
अदृश्य शक्तियाँ जाग चुकी थीं।
और फिर — पूरा दृश्य धुएँ में डूबने लगा।
मानो कोई कहानी बंद हो रही हो —
और कोई दूसरी… उसी राख से जन्म ले रही हो।
सिर्फ़ एक गूँज बची:
"वेताल… अब सिर्फ़ स्मृति नहीं है।
वो एक उत्तर है — और एक प्रश्न भी…"
—
(जारी रहेगा….)

वेताल
नरकवंश
सत्यसंधान
अन्य हॉरर स्टोरी
नागवंश
रिटर्न ऑफ़ अलकेमी मास्टर
शैडो ऑफ़ गॉड
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