वेताल : अध्याय 1
आज से 900 वर्ष पूर्व मालवा का एक पुराना गाँव “कौलपुर”, वह सावन की अंधेरी रात थी। आसमान में बादल, और हवा में सिहरन भरे रात का दूसरा पहर।
कौलपुर गाँव पूरी तरह सो चुका था — मिट्टी की दीवारों वाले घर, दरवाज़े के बाहर टिमटिमाती तेल की कुप्पियाँ, और कहीं-कहीं कुत्तों की सुस्त भौंकने की आवाज़ आ रही थी।
लेकिन उसी नींद में डूबे गाँव के कच्चे रास्ते पर धीरे-धीरे… भारी क़दमों से… कोई चल रहा था।
वो एक नौजवान था — दुबला-पतला, मगर आँखों में अजीब सी जिद और जलन लिए। उसकी चाल में डर नहीं था — पर दिल में थकान ज़रूर थी ।
उसके कंधे पर एक फटा हुआ झोला लटक रहा था — जिसमें कपड़े कम, अपमान ज़्यादा भरे थे। उसका नाम था — अरण्य। उसकी आँखों में आँसू नहीं थे, पर उस रात चाँद को भी ऐसा लगा मानो कोई उसे घेर रहा हो… सवालों से।
"मैंने क्या ग़लत किया था?"
उसने ऊपर आसमान की ओर देखा — बादलों की ओट में छिपते चाँद की तरफ़, मानो शिकायत कर रहा हो ईश्वर से।
“सिर्फ इतना कि मैंने ठाकुर के उस बिगड़ैल बेटे को जवाब दे दिया था…और अब पूरा गाँव मुझे भूत बोलता है?”
उसकी आवाज़ काँपती नहीं थी —बल्कि काँपती थी हवा… जो उसके साथ चलने से डर रही थी।
कौलपुर का ये लड़का, अब कौलपुर का नहीं रहा।
गाँव वालों ने उसे निकाला नहीं था — पर नज़रों से गिरा देना भी कम नहीं होता।
---
वो रास्ता उस जंगल की ओर जाता था… जहाँ जाने से सब कतराते थे। जिसके लिए उसकी माँ ने बरसों पहले चेताया था —“उस पीपल के नीचे मत जाना बेटा… वहाँ कुछ है…
जो अगर जाग गया… तो इंसान, इंसान नहीं रहता।”
पर उस रात, अरण्य को डर नहीं लग रहा था। उसे लग रहा था… जैसे कोई पुकार रहा है।
जैसे जंगल की वो पुरानी पगडंडी उसे बुला रही हो।
जैसे उसकी आत्मा को कोई पहचान रहा हो… वो जिसे अभी तक किसी ने समझा ही नहीं।
उसकी माँ के शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे, लेकिन उन्होंने उसके क़दमों की दिशा नहीं बदली। उसके चेहरे पर गुस्सा था —गुस्सा दुनिया से, लोगों से, और शायद… खुद से भी।
उसके भीतर कुछ टूट चुका था। और जब कोई भीतर से टूटता है — तो उसके बाहर कुछ जागता है।
---
अब जंगल के पहले मोड़ पर अरण्य रुकता है। चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा है सिर्फ़ एक उल्लू की आवाज़, और हवा की सरसराहट सुनाई देती थी।
और फिर —जैसे उसकी नज़रें उस एक वृक्ष पर टिक जाती हैं…वही पीपल —पुराना, विशाल, और अजीब रूप से जीवित।
वो पीपल —एक जर्जर देवता की तरह खड़ा था।
जिसकी मोटी जड़ें ज़मीन से ऊपर निकल आई थीं —
मानो सदियों से किसी अनदेखी चीज़ को जकड़ कर बैठी हों।
उसकी छालें छिल चुकी थीं…और हर शाख़ ऐसी लग रही थी, जैसे किसी की टूटी पसलियाँ हवा में लटक रही हों।
उसके नीचे एक चबूतरा है, जिस पर किसी ज़माने में दीपक जलाए जाते थे लेकिन अब सिर्फ़ ख़ाक ही बची थी।
अरण्य चुपचाप वहाँ पहुँचता है। कंधे से झोला नीचे रखता है।
और उस वृक्ष को देखकर कहता है — "अगर सबको लगता है मैं भूत बन चुका हूँ… तो क्यों न उस नाम का हक़ भी ले लूँ?" उसकी आवाज़ थकी हुई मगर स्थिर थी।
मानो उसकी ये बात किसी पुराने शाप की ज़ंजीर खोल रही हो। सदियों से नींद में दबी किसी परछाई ने जैसे आँखें खोली हों — क्योंकि पीपल के नीचे जो दबा था… वो महज़ एक आत्मा नहीं थी। वो किसी बहुत पुराने युद्ध की बची हुई राख थी।
और तभी…हवा का रुख बदलता है। एक झोंका आता है — ऐसा जैसे किसी ने साँस छोड़ी हो उस वृक्ष के भीतर से।
पीपल की टहनियाँ हिलती हैं, पर हवा रुक जाती है।
और उसी पल — ज़मीन काँप उठी। ना कोई आँधी… ना बारिश… फिर भी मिट्टी में लहर आई, जैसे कोई साँस ले रहा हो… धरती के भीतर से।
अरण्य पीछे हटा, चौंका। उसका गला सूखने लगा।
और तभी…पेड़ की जड़ों के बीच से एक साया उठा —
काला, धुँधला, धुआँ-सा बहता हुआ… और उस हवा से भी ठंडा जिसे मौत छू कर निकलती है।
अरण्य की आँखें कुछ ढूँढ रही थीं और उसी क्षण धीरे-धीरे उस पेड़ की एक मोटी शाखा से एक काली परछाई लटकती दिखी। एक "वेताल" — सूखी चमड़ी, खाली आँखें, और होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान।
अरण्य की आँखें फैल गईं। उसने काँपती आवाज़ में पूछा —
"तू कौन है…" कोई जवाब नहीं आया। वो साया उसकी ओर बढ़ने लगा। धीरे… बहुत धीरे…जैसे वो कदमों से नहीं, किसी सोच से चल रहा हो।
---
फिर — जब वो कुछ ही क़दम दूर था, उसने बिना होठ हिलाए, बिना चेहरा दिखाए कहा: "तू आया… अपनी मर्ज़ी से। अब लौटना तेरे हाथ में नहीं…"
"तू वही है… जिसे दुनिया ने ठुकराया है। अब मैं तुझे वो बनाऊँगा…जो रात में जियेगा…पर दिन में मिट जाएगा…"
अरण्य चीख पड़ा — “क्या बकवास है ये? तू कौन है?”
पर उसका सवाल जवाब नहीं माँग रहा था…वो सिर्फ़ अपने भीतर के डर को बाहर फेंक रहा था।
और साया बोला —“मैं वो शाप हूँ… जिसे सदियों से कोई जगाना नहीं चाहता था…” “मैं… उसका अंश हूँ… जो सोया है अभी…पर जब जागेगा… तो इस पूरी दुनिया में रात फिर कभी ख़त्म नहीं होगी।” उसकी आवाज़ हवा में गूंज नहीं रही थी बल्कि सीधा अरण्य के दिल के भीतर गूंज रही थी।
---
अगले ही पल…साया हवा में ऊपर उठा और बिजली जैसी तेज़ी से अरण्य की ओर झपटा। जैसे कोई परछाई शरीर में समा गई हो। अरण्य की आँखें पलट गईं उसकी चीख जंगल के हर वृक्ष, हर चिड़िया और हर छुपे साए तक पहुँची।
“आआआह्ह्ह्ह——!”
वो चीख इंसानी नहीं थी…वो ऐसी थी, जो सुनने वाले को अंदर तक कंपा दे। फिर सब शांत हो गया। बहुत शांत। इतना कि…जैसे जंगल ने उसकी आत्मा निगल ली हो।
कुछ ही देर बाद अरण्य की आँखें फिर से खुलीं। पर अब वे अरण्य की नहीं थीं। वे गहरी…काली और निर्जीव थीं। जैसे किसी और की आँखें… उसके भीतर से देख रही हों। किसी ऐसे की… जो कहीं और क़ैद है, पर अब… उसकी छाया आज़ाद हो चुकी है।
---
अगली सुबह सूरज निकल चुका था लेकिन रोशनी में भी सिहरन थी। पर उस सुबह की धूप में कोई गर्मी नहीं थी।
हवा थमी हुई थी। और पीपल के चारों ओर की ज़मीन…
मानो रातभर किसी साए के नीचे दबी रही हो।
रोज़ की तरह गाँव की ओर से कुछ चरवाहे निकले बकरी और भेड़ों को लेकर। पर जैसे ही उन्होंने उस पीपल के पेड़ को पार किया —एक घिनौनी सड़ांध उनकी नाक से टकराई।
“ये बदबू कैसी…?” एक लड़के ने नथुने सिकोड़ते हुए कहा।
दूसरे ने इशारा किया — “उधर देख… पेड़ के नीचे कुछ पड़ा है…” जैसे ही वो पास पहुँचे उनके कदम ठिठक गए। और अगले ही पल… चीख निकल गई — “ए माँ…!! कोई मर गया है!!”
---
वो एक शव था। मिट्टी पर औंधा पड़ा हुआ जिसका शरीर सूखा हुआ था जैसे सारा खून किसी ने निचोड़ लिया हो।
उसकी त्वचा सिकुड़ी हुई थी, हड्डियाँ बाहर निकली हुई… और आँखें फटी हुई, भय से जमी हुईं।
वो चेहरा किसी इंसान का तो था, पर अब किसी डरावने चित्र का हिस्सा लगता था।
---
गाँव वाले धीरे-धीरे इकट्ठा हुए। किसी ने शव को पलटने की हिम्मत की… “ये तो… ये तो ‘बलिराम’ है! ठाकुर का रखवाला!” सभी में हड़बड़ाहट मच गई। “ये यहाँ क्या कर रहा था?” “और इसकी ऐसी हालत… किसने की?”
---
ठाकुर आया, शरीर को देख कर उसका चेहरा फिका पड़ गया। “बलिराम को मैंने भेजा था…उस लड़के के पीछे।” अब सब कुछ साफ़ होने के बजाय और धुंधला हो गया था। “पर अरण्य कहाँ है…?”
पर अब सबसे बड़ा सवाल था “अरण्य?”
क्योंकि…वो वहाँ नहीं था। ना शव के पास, ना जंगल में,
ना गाँव में। जैसे रात उसे खा गई हो।
---
गाँव की सबसे बुज़ुर्ग औरत शांति बुआ कांपती आवाज़ में बोली: “मैंने कहा था न… उस पीपल को मत छेड़ो…वहाँ जो है… वो अब जाग चुका है —पर ये तो बस उसकी परछाई है… असली अभी भी बंद है।”
उस दिन के बाद, कौलपुर में कोई उस रास्ते से
नहीं गुज़रा।
और अरण्य? वो अब किसी को नहीं दिखा… पर हर रात… पीपल की टहनियाँ जैसे फड़फड़ाने लगी थीं। जैसे कोई ऊपर बैठा हो…और किसी को ढूँढ रहा हो।
—
(जारी…)

वेताल
नरकवंश
सत्यसंधान
अन्य हॉरर स्टोरी
नागवंश
रिटर्न ऑफ़ अलकेमी मास्टर
शैडो ऑफ़ गॉड
0 टिप्पणियाँ