स्थान: चामकुंड का गुप्त जलकुंड, समय: रात 3:00 बजे — वक़्त अब केवल आगे बहने वाला है। रात अब पूरी तरह पिघल चुकी थी। आकाश में तारे नहीं बचे थे, बस एक गाढ़ा स्याहपन था — जैसे खुद वक़्त भी साँस रोककर देख रहा हो कि आगे क्या होने वाला है।


आर्यन की उंगलियाँ अब भी जलकुंड की सतह को स्पर्श कर रही थीं, लेकिन उस जल में अब शीतलता नहीं थी…वह तरल नहीं था…वह जल नहीं था। वह कुछ और था — कुछ जिसे छूते ही एक कंपकंपी उसकी रीढ़ की हड्डी से होती हुई पूरे शरीर में दौड़ गई।


उसकी आँखें खुली थीं, लेकिन उसके सामने की लहरें अब पानी जैसी नहीं दिख रही थीं। वो तरल था… लेकिन भीतर कहीं झाँकता हुआ, देखता हुआ — जैसे किसी ने दृष्टि उधार दी हो उस जल को। वो जल अब एक चेतना था।


आर्यन ने अचानक महसूस किया — उस जलकुंड की सतह ने उसे छुआ नहीं, बल्कि उसने आर्यन को चुना है। पीछे खड़ा पाराशर एकटक देख रहा था — उसके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ वैसी ही कसी हुई थीं जैसे किसी रहस्य की रक्षा करने वाले द्वारपाल के माथे पर हों जब वह देखे कि ताला अब टूट चुका है… और रहस्य साँस लेने को तैयार है।


जलकुंड से अब एक अनसुनी, लेकिन जीवित ध्वनि उठ रही थी। न वह संगीत था… न कोई शब्द। वो कुछ था… जिसे सुना नहीं जाता, बस याद किया जाता है।



आर्यन के कानों में कुछ और ही गूँजने लगा — जैसे दूर… बहुत दूर… समय के उस पार से कोई स्त्री बोल रही हो। उसकी आवाज़ न बहुत तेज़ थी, न धीमी — लेकिन सीधी आत्मा में उतरने वाली। “यदि वंश को जगाना है…तो उसका बोझ भी उठाना होगा।” आर्यन की साँस अटक गई। उसने काँपती पलकों से ऊपर देखा — कोई नहीं था। बस पेड़ों की परछाइयाँ और कुंड का मंद स्वर। लेकिन आवाज़ अब भी भीतर गूँज रही थी।


आर्यन ने धीमे से पूछा — “वो… वो कोई स्त्री थी। उसने कुछ कहा…” पाराशर की आँखें सिकुड़ गईं। उसने जल्दी से आगे बढ़ते हुए आर्यन की बाँह पकड़ी और लगभग फुसफुसाकर बोला — “क्या सुना तूने?”


आर्यन की आवाज़ काँप रही थी, लेकिन शब्द स्पष्ट थे, “उसने कहा — वंश को जगाना है… तो उसका बोझ भी उठाना होगा…” पाराशर के होठ सुन्न हो गए। उसकी उँगलियाँ आर्यन की बाँह से हट गईं, लेकिन आँखों में भय का रंग और गहरा हो चुका था। “तो वह जाग रही है…” उसने धीमे से कहा, मानो किसी अदृश्य शक्ति को संबोधित कर रहा हो। “नागमाता…”




आर्यन सिहर उठा। उस शब्द ने जैसे जलकुंड के तापमान को बदल दिया हो। उसकी साँसें भारी हो गईं… और जलकुंड की सतह… अब धुँधली नहीं, पारदर्शी लगने लगी। जैसे वहाँ… कुछ… कोई… देख रहा हो।



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इसी क्षण — दूसरी दिशा में, जंगल की गहराई में — कोई और भी जाग रहा था। पेड़ों के बीच कहीं बहुत दूर, जहाँ चाँद की रौशनी तक डर के मारे ठिठक जाती थी — वहाँ कुछ था…कुछ जो नींद में नहीं, बल्कि प्रतीक्षा में था।


झाड़ियों के पीछे, एक धुँधली आकृति वर्षों से छिपकर देख रही थी —वो साया अब स्थिर नहीं रहा। धीरे-धीरे… वह हवा में घुलता हुआ आगे बढ़ने लगा। जैसे धुआँ, लेकिन धुएँ से अधिक ठोस। जैसे छाया, लेकिन छाया से अधिक जीवित।उसकी आँखें — जो आँखें कम और जली हुई अग्नि अधिक लगती थीं — अब और तेज़ जल रही थीं। लाल, धधकती, भस्म कर देने वाली। वो कोई जीव नहीं था, ना ही आत्मा। वो था — एक अस्वीकृत अस्तित्व।


उसका शरीर, जो वास्तव में शरीर था ही नहीं, धीरे-धीरे जलकुंड के आस-पास मँडराने लगा। कोई आहट नहीं… कोई पत्ते नहीं खड़के…पर आर्यन ने कुछ महसूस किया। एक बेहद हल्का, लेकिन काट देने वाला अहसास — जैसे कोई बर्फ़ीली उँगली उसकी गर्दन के पीछे से गुज़री हो…एक साँस जैसी, जो उसकी त्वचा को नहीं, आत्मा को छू गई।


आर्यन की रीढ़ सीधी हो गई। उसने तुरंत पलटकर देखा — लेकिन वहाँ कुछ नहीं था… कम से कम इंसानी आँखों के लिए। पर पाराशर की दृष्टि गहरी थी। उसने लगभग साँस रोककर फुसफुसाया — “वो यहाँ है…”



आर्यन ने फिर से देखा — इस बार उसकी दृष्टि किसी अदृश्य की परत को चीरती हुई अंदर जा चुकी थी। और तब… उसने देखा। वो कोई आदमी नहीं था। वो एक सर्पछाया था। ना चमड़ी थी, ना हड्डियाँ — सिर्फ़ एक आकार… एक अंधकार…जो किसी साँप की तरह ही लहराता था, लेकिन वह रेंगता नहीं था — वह तैरता था… हवा में… मानो गुरुत्वाकर्षण भी उसे छू नहीं सकता।


सर्पछाया — नागवंश से निकली एक अस्वीकृत चेतना। न कभी जन्मी, न कभी मरी। बस… किसी पाप की प्रतिक्रिया थी। वो न फुफकारता था, ना कोई ध्वनि करता था —बस देखता था। और जहाँ वह देखता था… वहाँ से मनुष्य की स्मृति गलने लगती थी।


आर्यन ने अपनी ही सोच में एक दरार सी महसूस की — जैसे कोई पुरानी याद धुँधली हो रही हो। पाराशर ने तुरंत उसकी कलाई पकड़ी — “देखना मत… उसकी आँखें देखना मत… वो यादें खा जाता है…”


जलकुंड की सतह पर अब नमी नहीं, घनी धुँध थी — और उसके नीचे, कोई चेतना जाग चुकी थी…एक ओर नागमाता, दूसरी ओर सर्पछाया — और बीच में आर्यन… एक ऐसे खेल में, जहाँ मोहरे इंसान नहीं, रक्त होते हैं।



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“आर्यन,” पाराशर की आवाज़ फिर गूंजी —इस बार उसमें वह कोमलता नहीं थी जो अब तक उसके शब्दों में छिपी रहती थी। अब वह चेतावनी नहीं… आदेश थी। “अब तुझे तय करना है — तू नागवंश का उत्तराधिकारी बनता है…या उसका ग्रास।”




आर्यन की आँखें फैल गईं — भीतर कहीं कुछ थम गया था।जलकुंड अब शांत नहीं रहा — उसकी सतह पर उठती लहरें अब लहर नहीं, जैसे धड़कनों की प्रतिछाया लग रही थीं। वह अब जल नहीं था… वह संवेदना बन चुका था। जैसे किसी प्राचीन चेतना ने उस कुंड को अपना शरीर बना लिया हो।


और तभी…कुंड से एक पतली, लगभग अदृश्य सी लकीर उठी — एक जलरेखा, जो साँस जैसी हल्की थी — और वह लकीर धीरे-धीरे आगे बढ़ी… आर्यन की उंगलियों तक पहुँची… और वहीं रुक गई। आर्यन की साँस थम गई — जैसे कुछ इंतज़ार कर रहा हो… फिर अचानक — धड़ाम!!



जंगल की एक ओर से एक भारी आवाज़ गूंजी — जैसे कोई बूढ़ा पेड़ ज़ोर से टूटा हो… टहनियाँ तितर-बितर हुईं, पक्षी सहम कर उड़ गए। और वहाँ से…उस टूटी हुई शाखाओं के बीच से… धुएँ की परत को चीरती हुई…एक आकृति प्रकट हुई।


लेकिन यह कोई साया नहीं थी। यह एक मनुष्य था। परंतु — ऐसा मनुष्य, जिसे देखकर स्वयं जंगल चुप हो जाए। उसके शरीर पर लिपटा हुआ वस्त्र नागवृक्ष के पुजारियों की पोशाक जैसा था —मिट्टी जैसा रंग, गाढ़ा, गीला… लेकिन उसपर चमकती हुई एक आकृति बनी थी। उसके कंधे पर एक काला चिह्न था —तीन उलझे हुए नाग —और उनके मध्य एक खुली आँख। वह आँख प्रतीक नहीं थी —वह जैसे कुछ देख रही थी।आर्यन ने जैसे ही वह चिह्न देखा, उसके मस्तिष्क में कुछ चुभा —एक पुराना, भूला हुआ दृश्य…किसी मंदिर की टूटी दीवार…और उसपर खून से बनी वही आकृति।


उसका सिर घुमा —और तभी पाराशर की साँस अटक गई।उसके चेहरे पर जो भय था, वह कोई साधारण डर नहीं था —वह उस क्षण का डर था, जब कोई जानते हुए भी, फिर से वही गलती होता देखे…जो पहले एक युग को नष्ट कर चुकी थी। “वह आ गया…” पाराशर फुसफुसाया।


 “वह… जिसे नागवृक्ष ने खुद निष्कासित किया था… ‘त्रिशंखु’।” आर्यन ने उस नाम को सुनते ही जैसे एक शून्य में गिरने का अनुभव किया। त्रिशंखु न कोई देव, न कोई राक्षस, ना ही कोई मानव। बल्कि वो… जिसे नागवंश ने भी स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। और अब…वो यहाँ था। जलकुंड के सामने। आर्यन की ओर बढ़ता हुआ —जैसे उसे विरासत नहीं, फैसला सुनाना हो।



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आर्यन ने उसकी ओर देखा —लेकिन जैसे ही उसकी नज़र उस आकृति से टकराई… वह सिर्फ़ देख नहीं रहा था — वह खिंचता जा रहा था… मानो उसकी आँखें एक दरवाज़ा थीं, और उस दरवाज़े के पीछे कोई उसकी स्मृतियों में उतर रहा हो।


एक पल में ही…उसे अपने ही बचपन की धुँधली छवियाँ याद आने लगीं — वो मंदिर की टूटी सीढ़ियाँ… वो सपना जिसमें एक साँप उसकी हथेली पर रेंगता था…वो डर, जिसे कभी नाम नहीं मिला…जैसे कोई उसकी यादों को पलट रहा था — एक किताब की तरह।


वो व्यक्ति — त्रिशंखु — अब बिल्कुल सामने था। उसकी मौजूदगी से हवा भारी लगने लगी थी —जैसे ऑक्सीजन अब भी साँसों में थी, लेकिन विश्वास नहीं। जैसे वहाँ खड़े रहना एक बोझ बन रहा हो। “आर्यन,” वो बोला।


उसकी आवाज़ में विष था…लेकिन वो ज़हर ऐसा था जो मारने के लिए नहीं, बल्कि आकर्षित करने के लिए था। हर शब्द जैसे फिसलता हुआ आता — धीमे, भारी, लेकिन सीधे आर्यन की चेतना में उतरता। “अगर तुझे लगता है कि नागवंश सिर्फ़ रक्षक है…तो तू अधूरा सच जानता है।”




आर्यन की आँखें सिकुड़ गईं। वो डर नहीं रहा था… पर जो सुन रहा था, वह उसकी सोच से बाहर था। उसने साहस बटोरकर पूछा —“क्यों?”


त्रिशंखु की मुस्कराहट और फैल गई —वो मुस्कराहट नहीं थी, बल्कि एक उद्घोषणा थी। “क्योंकि नागवंश केवल बचाता नहीं था…” “…वो राज करता था।” “और अब… मैं लौट आया हूँ…अपना राज्य वापस लेने।”




उसके शब्दों के साथ ही —जलकुंड की सतह एक बार फिर काँपी —लेकिन अब उसमें कंपन नहीं, प्रतिरोध था। जैसे जलकुंड खुद इस उपस्थिति को अस्वीकार कर रहा हो।


पाराशर एक कदम आगे आया —उसकी मुट्ठियाँ बंधी थीं, और आँखें लाल। “त्रिशंखु… यह भूमि अब तुझसे नहीं डरती।” त्रिशंखु उसकी ओर देख कर हँसा —“भूमि नहीं डरती, पाराशर… लेकिन जो खड़ा है उस भूमि पर —वो अब भी नहीं जानता कि वो क्या है। और यही मेरी शक्ति है।”


वो आर्यन की ओर फिर मुड़ा —अब उसकी आँखें और गहरी थीं, जैसे सीधे भीतर झाँक रही हों। “तू ही है ‘उत्तर’… लेकिन प्रश्न अब भी अधूरा है।” एक सर्पछाया कुंड के पार से फुफकारते हुए झुकी — और उस क्षण, आर्यन को लगा जैसे ज़मीन उसके पैरों के नीचे नहीं रही। उसका भाग्य लिखा जा चुका था —लेकिन किस भाषा में… और किस देवता के हस्ताक्षर से… ये अभी खुलना बाकी था।



(जारी है...)