"जब हर रास्ता बंद हो… तब भी सच कहीं न कहीं छिपा होता है।"

— अन्वेषक जयवर्धन त्रिपाठी


स्थान: बनारस, तारीख: 27 जून 2005 मौसम: लगातार तेज़ बारिश, स्थान विशेष: गंगा के किनारे स्थित एक वीरान हवेली — "राजेश्वरी निवास"


बनारस की हवाएँ उस दिन किसी साधारण मोड़ पर नहीं थीं।गंगा की लहरें किनारों को थपथपाते हुए जैसे कुछ कहना चाह रही थीं, और आकाश से गिरती मोटी बारिश की बूंदें — उस चुप्पी को तोड़ रही थीं। जो हवेली के भीतर जमी थी।


"राजेश्वरी निवास", एक समय में एक कुलीन पारिवारिक हवेली, अब समय और रहस्यों की गठरी बन चुकी थी। पुराने दीवारों पर पपड़ी जम चुकी थी, लकड़ी की सीढ़ियाँ हर कदम पर कराहती थीं —और हवेली की खामोशी कुछ छिपा रही थी… या शायद कुछ बताना चाहती थी।



---


27 जून की सुबह, हवेली की ऊपरी मंज़िल के एक कमरे से एक बंद दरवाज़े के पीछे से एक शव बरामद हुआ। कमरा पूरी तरह अंदर से बंद था: दरवाज़े पर चैन और कुंडी दोनों लगे थे। खिड़कियाँ भीतर से बंद, जिन पर जंग लगे ताले थे।रोशनदान पर काँच और धूल, जो साफ़ करता था कि वहाँ से कोई निकास असंभव था, लेकिन अंदर जो मिला —एक मरा हुआ इंसान। कोई हथियार नहीं। कोई घुसपैठ का संकेत नहीं। लेकिन साफ़ तौर पर — यह मौत सामान्य नहीं थी।


मृत व्यक्ति: विनोद प्रकाश उम्र: लगभग 48 व्यवसाय: प्रसिद्ध आपराधिक वकील, स्थिति: हाल ही में परिवार के इकलौते उत्तराधिकारी के रूप में "राजेश्वरी निवास" के स्वामी बने थे।प्रसिद्धि: बेहद तर्कशील, कानून के शब्दों को मोड़ने में माहिर — परंतु पिछले कुछ समय से मानसिक रूप से परेशान बताए जा रहे थे।

इस फाइल के मुख्य पात्र: विनोद प्रकाश: मृत व्यक्ति — प्रसिद्ध वकील, हवेली का नया मालिक।

रश्मि प्रकाश: उनकी पत्नी — मानसिक रूप से अस्थिर कही जाती हैं; अक्सर आत्मग्लानि और भय में रहती हैं।

पंडित देवकीनंदन: हवेली के पुराने पुजारी — उनका मानना है कि हवेली में विशेषकर उस कमरे में "ऊपरी साया" है।

अर्जुन नाथ: वफादार नौकर — पिछले 12 वर्षों से हवेली में काम कर रहा है; हर रोज़ वही उस कमरे की सफ़ाई करता था।

जयवर्धन त्रिपाठी: सत्यसंधानकर्ता — केस की गहराई को देखने के लिए विशेष रूप से बुलाया गया।



संदेह की पहली लहरें:

क्या यह आत्महत्या थी… या फिर एक परिकल्पित हत्या?

अगर कोई और कमरे में नहीं था — तो हत्या संभव कैसे?

क्या कमरे में सचमुच कुछ "अलौकिक" था… जैसा कि पंडित कहते हैं?

या फिर, सब कुछ बस बहुत चालाकी से रचा गया एक भ्रम था?


---


दोपहर 3:12 PM जब बाकी पुलिसवालों ने केस को आत्महत्या मान लिया था, तभी एक काली कार हवेली के बाहर रुकी। छतरी से बचता हुआ, लंबा कोट पहने एक आदमी सीढ़ियाँ चढ़ता है। जयवर्धन त्रिपाठी आ चुके थे। "कभी-कभी, कमरे बंद नहीं होते… बस हमारी सोच बंद हो जाती है। अब दरवाज़े नहीं, दिमाग़ खोलना होगा।"


................


बारिश लगातार गिर रही थी — बूंदें इतनी मोटी थीं कि जैसे आसमान कोई रहस्य बरसा रहा हो। हम गाड़ी से उतरकर उस पुरानी हवेली के सामने खड़े हुए, जिसका नाम था — राजेश्वरी निवास।


दीवारों पर काई और दरारें, छतों से लटकते टूटे झालर, और खिड़कियों पर लगी जंग — यह सब कुछ किसी भूले हुए समय की गवाही दे रहे थे। "बारिश रुकने का इंतज़ार करेंगे?" मैंने पूछा।



"सच बारिश नहीं देखता।" जयवर्धन त्रिपाठी ने कहा, और अपने कोट की कॉलर ऊपर चढ़ा ली। हम भीतर दाख़िल हुए।हवेली के भीतर एक अजीब सी नमी थी — जैसे हवा भी पुरानी किताबों और बासी यादों में लिपटी हो। सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त हर कदम की आहट गूँज रही थी, जैसे कोई जागा हुआ आत्मा ध्यान दे रही हो।


ऊपरी मंज़िल पर, तीसरा कमरा — वही था जहां घटना हुई थी। दरवाज़े के बाहर खड़ा था अर्जुन। नौकर, उम्र कोई पैंतीस, चेहरा डरा हुआ और भीगा। "कमरा अंदर से बंद था, साहब… खिड़कियाँ भी… और जब दरवाज़ा तोड़ा गया, तो विनोद बाबू मृत पड़े थे।"




उसकी आवाज़ काँप रही थी। "सिर में चोट थी…लेकिन कमरे में कोई दूसरा नहीं था। न आवाज़, न चीख… बस… मौत… चुपचाप।"


जयवर्धन कुछ नहीं बोला। उसने बस आगे बढ़कर दरवाज़े को ध्यान से देखा। लकड़ी की चौखट अभी भी टूटी हुई थी —जैसे ज़बरदस्ती खोला गया हो। अंदर से टूटा हुआ “लैच” अब भी लटका था। वह साफ़ दर्शाता था कि दरवाज़ा वास्तव में अंदर से बंद था।


जयवर्धन ने धीरे से दरवाज़े के किनारे की लकड़ी को उंगली से छुआ —वहाँ कुछ रगड़ के निशान थे, जैसे किसी ने बहुत जल्दी में उसे जाम किया हो।


अब खिड़की की बारी थी। कमरे में दो पुरानी खिड़कियाँ थीं —लकड़ी की, जिन पर अंदर से पट्टी लगी थी। जयवर्धन ने उनमें से एक की सिल को उंगली से छुआ —धूल की एक मोटी परत, जो जगह-जगह फटी नहीं थी। "कोई बाहर से आया नहीं…" वो बुदबुदाया।


मैंने पूछा, "फिर ये कैसे हुआ?" वो धीरे से पलटा, और बोला — "कोई आया भी नहीं… गया भी नहीं…लेकिन मरा तो कोई है।"


कमरा अब और भी ठंडा लगने लगा था। जैसे वहाँ मौत नहीं, कोई कहानी बसी हो —एक ऐसी कहानी, जिसका आख़िरी पन्ना किसी ने जान-बूझकर फाड़ दिया हो।


...............


कमरे में अब अजीब सी ठंडक थी। ना वो हवा थी, ना बरसात का असर — मानो कोई अदृश्य चीज़ आसपास घूम रही हो।जयवर्धन त्रिपाठी दीवार से सटा खड़ा था। उसकी आँखें कमरे की हर दरार, हर छत के कोने, हर परछाईं को पढ़ रही थीं —जैसे शब्दों से नहीं, खामोशी से सच निकालना चाहता हो।



---


ठीक उसी वक़्त, कमरे में हल्की सी आहट हुई। कपड़ों की सरसराहट और लकड़ी के खड़खड़ाते दरवाज़े से एक लंबा, सफ़ेद धोती-कुर्ता पहने वृद्ध अंदर आया। पंडित देवकीनंदन।उनकी चाल में थकावट थी, पर आँखों में एक अजीब दृढ़ता थी — जैसे वे सच जानते हों… पर कह नहीं सकते।


उन्होंने कमरे की दहलीज़ पार करते ही गंगाजल की छोटी शीशी जेब से निकाली — और हवा में छिड़क दिया। "ये कमरा शुद्ध नहीं है…" उनकी आवाज़ धीमी, पर गूंजदार थी। "यह स्थान शापित है। दशकों पहले… विनोद बाबू के दादा —जज हरिदत्त प्रकाश — इसी कमरे में मरे थे। बिल्कुल ऐसी ही बारिश, ऐसी ही बंद खिड़कियाँ, और वैसी ही रहस्यमयी मौत।"


जयवर्धन ने ध्यान से उन्हें देखा, पर कुछ नहीं कहा। पंडित जी अब कमरे के कोने में जाकर खड़े हो गए, जहाँ दीवार में एक पुराना तावीज़ टंगा था — जंग लगा, मिट्टी से भरा। "तब से हर पुश्त… इस कमरे से डरती रही। और अब… इतिहास दोहराया गया।"


कमरे की दूसरी ओर, एक और साया चुपचाप बैठा था। रश्मि प्रकाश। विनोद की पत्नी। उसकी साड़ी भीगी हुई थी, चेहरे पर थकावट और आँखों में एक गहराई — जिसमें कोई अब झाँकना नहीं चाहता था।


वो दीवार से टिकी हुई थी, और शून्य में घूर रही थी। कभी-कभी उसका सिर हिलता, जैसे कोई अदृश्य सवाल उससे कुछ पूछ रहा हो। फिर वो धीरे से बड़बड़ाई — "उसे… मत आने दो… वो… दीवार के अंदर रहता है… वो… देखता है। वो… जानता है… मैं जानती हूँ…" उसकी आवाज़ फुसफुसाहट में बदल गई, और फिर कमरे में सन्नाटा छा गया।


जयवर्धन ने सब सुना — एक-एक शब्द, एक-एक कंपन। वो अब भी चुप था। उसने जेब से अपनी नोटबुक निकाली, और उसमें कुछ पंक्तियाँ लिखीं: “जब गवाही शब्दों से नहीं, डर से मिलती है… तब अपराधी कल्पना बन जाता है… और कल्पना — एक पर्दा।”


अब तक बारिश की रफ्तार कम हो चुकी थी। लेकिन हवेली के भीतर — रहस्य की बूंदें अब भी टपक रही थीं।


...............


कमरा एक बार फिर खाली था — पुलिस जा चुकी थी, अर्जुन भी नीचे चला गया था। सिर्फ हम दोनों थे — मैं और जयवर्धन।विनोद प्रकाश की मौत के कमरे में, जहाँ खामोशी अब सवाल बन चुकी थी। कमरे के बीचों-बीच एक पुराना, टूटा हुआ झूमर पड़ा था — उसकी काँच की झालरें अब भी बिखरी हुई थीं, जैसे कोई चीज़ ऊपर से गिराई गई हो।


जयवर्धन झूमर के पास झुका, उसने टूटी चेन की दिशा देखी, और फिर ऊपर छत को गौर से देखा। "झूमर नीचे गिरा… लेकिन गिराया गया या टूटा?" उसने जैसे खुद से पूछा।


फिर उसकी नज़र दीवार पर एक ताज़ा खरोंच पर गई। पुरानी दीवार पर जहां सब कुछ धुंधला था, वहाँ ये निशान चमक रहा था — जैसे किसी ने हाल ही में कुछ तेज़ चीज़ घसीटी हो।


उसने दीवार पर उँगली घुमाई, और फिर कुछ कदम पीछे हटकर नोटबुक में लिखा। फर्श पर चलते हुए, जयवर्धन अचानक रुक गया। लकड़ी की पट्टियों में एक जगह, एक पतली सी दरार में, हल्की सी उभरी हुई लकड़ी की आवाज़ आई — "ठक…"


वो झुका, और अपनी छड़ी से पट्टी को धीरे-धीरे दबाया। "यहाँ कुछ दबा है या शायद… कुछ छिपा।" उसने छड़ी से पूरा किनारा खटखटाया — एक हिस्सा खोखला था। "इस कमरे में जो दिख रहा है, उससे ज़्यादा कुछ छिपा है।"




उसने गहरी साँस ली, जैसे कमरे से बात कर रहा हो। रात 11:18 PM पूरी हवेली अंधेरे में डूबी थी। बारिश रुक चुकी थी, लेकिन गंगा की लहरों की आवाज़ अब भी खिड़की से आती थी — एक धीमा, लहराता हुआ संगीत…या शायद… चेतावनी।


सिर्फ एक लालटेन की रोशनी में, जयवर्धन ने वही कमरा फिर से देखा। अब वह अकेला था। एक-एक बार दीवारें टटोलता, छत की छायाओं को पढ़ता, फर्श पर उँगलियों से निशान ढूँढता — उसकी हर हरकत किसी पुराने राग की तरह लग रही थी।


और तभी… एक कोने में रखी पुरानी अलमारी को सरकाने के बाद, दीवार पर एक लकड़ी का हिस्सा चमक उठा। जयवर्धन ने धीरे से उंगली से उसे दबाया। "टक… क्लिक!"


दीवार खिसकी। एक स्लाइडिंग पैनल… जो बाहर से किसी तस्वीर या अलमारी के पीछे पूरी तरह छिपा था। उसके पीछे एक संकरी सीढ़ी दिखी —अँधेरे में उतरती हुई। "छुपा हुआ रास्ता…और शायद… छुपा हुआ कातिल।"



वो सीढ़ियों पर उतरा। नीचे एक संकरी सुरंग थी, जो हवेली के पीछे के स्टोर रूम में खुलती थी — वहीं से जहां बाहर निकलने का गुप्त रास्ता मौजूद था। मतलब — कमरा पूरी तरह बंद कभी था ही नहीं। एक दरवाज़ा… अदृश्य था। और अब, हत्या की पहली परत खुल चुकी थी।


...............


कमरे में फिर से सब जमा थे — रश्मि अब भी दीवार से टिकी थी, आँखें गहराई में डूबी हुई। पंडित देवकीनंदन हाथ में माला लिए खड़े थे। मैं एक कोने में चुप बैठा नोट्स ले रहा था।


और जयवर्धन त्रिपाठी, कमरे के बीचों-बीच खड़ा, अपने सवालों के घेरे से सच को खींचने ही वाला था। "हत्या आत्मा ने नहीं की — बल्कि उसे छिपाने के लिए आत्मा की कहानी बनाई गई।"




उसकी आवाज़ भारी थी — जैसे कमरा अब शब्दों से नहीं, सच्चाई से गूंजने वाला हो। "और हत्यारा वही है…जो जानता था कि उस स्लाइडिंग पैनल का क्या राज़ है।"




ये शब्द सुनकर कमरे में सन्नाटा पसर जाता है। सबकी निगाहें घूमीं, और जाकर अर्जुन पर ठहर गईं — नौकर, वफादार… और अब संदिग्ध।


जयवर्धन ने उसकी ओर कदम बढ़ाए। उसके चेहरे पर कोई हड़बड़ाहट नहीं थी — बस एक स्थिरता, जो आंधी से पहले के सन्नाटे जैसी थी। "तू ही हर रोज़ सफाई करता था।तू ही उस कमरे के हर कोने से परिचित था।

तू जानता था कि वहाँ एक पुराना छुपा पैनल है —एक गुप्त दरवाज़ा, जिससे कोई भी अंदर आ-जा सकता है…और बाहर से किसी को पता भी न चले।**"



अर्जुन की पलकें झपकना भूल गईं। पंडित ने माला खींचनी बंद कर दी। रश्मि की साँस थोड़ी तेज़ हो गई। "तू ही पीछे से आया। मालिक पर वार किया। फिर अंदर से दरवाज़ा बंद किया — और उसी पैनल से वापस निकल गया। ताकि लगे कि कमरा पूरी तरह बंद था।" अब अर्जुन की आँखें डबडबा चुकी थीं।



---


जयवर्धन ने धीमे स्वर में कहा — "लेकिन… एक गवाह थी…रश्मि। वो सब देख चुकी थी। लेकिन उसकी हालत वैसी नहीं थी कि कुछ कह सके… या शायद, उसने डर को ही अपना बचाव बना लिया।इसलिए वो दीवारों से बात करने लगी।क्योंकि उसे लगता था… वो दीवारें ज़्यादा सुरक्षित थीं इंसानों से।"




रश्मि की आँखों से आँसू बहने लगे — पहली बार उसने किसी शब्द को सच की तरह सुना। अब अर्जुन पूरी तरह टूट चुका था। उसके घुटने जवाब दे गए — वो ज़मीन पर गिरा और रोने लगा। "मुझे… सिर्फ़ एक बार ज़मीन चाहिए थी। मालिक ने वादा किया था… लेकिन फिर मुकर गए… मैंने कई बार हाथ जोड़े… लेकिन उन्होंने कहा — 'तू नौकर है… नौकर ही रहेगा'…और फिर… उस दिन… मैंने गुस्से में… सब कुछ खत्म कर दिया।" कमरे में फिर सन्नाटा था — इस बार भारी, भरा हुआ… लेकिन शांत।



---


आरव घोष: "दीवारों को कभी कम मत समझो… कुछ दीवारें बोलती हैं। और कुछ दीवारें… सब कुछ देखती हैं।"


केस बंद। अर्जुन गिरफ्तार हो गया। और रश्मि का इलाज शुरू कर दिया गया। लेकिन हवेली… अब भी चुप है। क्योंकि कुछ कमरे कभी नहीं खुलते — बल्कि वो… हमें खोलते हैं।


समाप्त — परंतु सत्यसंधान जारी रहेगा…