“कभी-कभी आवाज़ें मरने से पहले नहीं, मरने के बाद आती हैं…”

— जयवर्धन त्रिपाठी

स्थान: इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर, तारीख: 14 जुलाई 2005 मौसम: धीमी-धीमी बारिश की बूँदें छत पर गिरती रहीं — जैसे कोई अदृश्य साजिश परदे के पीछे से अपना रिहर्सल कर रही हो। स्थान विशेष: गोपाल कृष्ण छात्रावास — विश्वविद्यालय के पुराने छात्रावासों में से एक, जिसकी तीसरी मंज़िल पिछले कुछ वर्षों से लगभग वीरान थी।


रहस्य की शुरुवात होती हैं रात के 2:08 बजे, गोपाल कृष्ण छात्रावास की तीसरी मंज़िल पर सन्नाटा पसरा हुआ था। उस मंज़िल पर सिर्फ एक ही कमरा अभी उपयोग में था — कमरा संख्या 307, जिसमें रह रहा था राघव सिन्हा।


एक तेज़ चीख — कर्कश, काँपती हुई, और असामान्य रूप से लंबी — रात के सन्नाटे को चीरती हुई आई। चीख इतनी स्पष्ट थी कि दूसरी मंज़िल पर रहने वाली छात्रा कविता शर्मा की नींद टूट गई। उसने दीवार की घड़ी देखी — 2:08 AM।


कविता ने मोबाइल उठाया और हॉस्टल वॉर्डन प्रो. आशीष गुप्ता को कॉल करने की कोशिश की, पर नेटवर्क की समस्या ने साथ नहीं दिया। उधर, चौकीदार हरीलाल जो हॉस्टल के गेट पर ड्यूटी पर था, उस वक्त गेट पर ताला लगाए बैठा हुआ था — बारिश से बचने के लिए अंदर की तरफ। उसने भी चीख सुनी, लेकिन ऊपर जाने की हिम्मत नहीं की।



सुबह 7:20 AM प्रो. आशीष गुप्ता स्वयं पुलिस और विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मियों के साथ तीसरी मंज़िल पर पहुंचे। कमरा 307 अंदर से बंद था। कई बार दरवाज़ा खटखटाने और पुकारने के बावजूद कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। और फिर दरवाज़ा तोड़ा गया।


भीतर का दृश्य भयावह था: राघव बिस्तर के पास, ज़मीन पर पड़ा था। चेहरा सफेद पड़ चुका था, आँखें खुली थीं — उनमें गहरा आश्चर्य और भय दर्ज था। गला नीला पड़ा हुआ था, जैसे किसी ने उसका दम घोंटा हो — मगर कमरे में कोई अन्य मौजूद नहीं था।


और सबसे विचित्र चीज़ — खिड़की की सलाखों से एक पुरानी, धुंधली तस्वीर लटक रही थी, जैसे किसी ने उसे वहाँ टांग दिया हो। तस्वीर में कौन था? साफ़ नहीं था — पर तस्वीर पर कुछ लिखा था, बहुत हल्के पेंसिल के अक्षरों में: "वो अब भी यहीं है…"


रात 1:00 AM से सुबह 6:00 AM तक की CCTV रिकॉर्डिंग की समीक्षा की गई। गोपाल कृष्ण छात्रावास के मुख्य गेट, सीढ़ियों और कॉरिडोर में लगे तीन कैमरों में एक भी संदिग्ध गतिविधि नहीं दिखाई दी। कोई तीसरी मंज़िल पर गया नहीं। कोई तीसरी मंज़िल से आया नहीं।


यहां तक कि राघव के कमरे के बाहर की लाइट खुद-ब-खुद 2:05 से 2:10 के बीच बंद हो गई। जैसे किसी ने कैमरे के सामने से गुजरने से बचने के लिए अंधेरा फैलाया हो।


लेकिन कुछ सवाल जो गूंजते रह गए…

1. राघव की मौत दम घुटने से हुई — पर किसी के आने-जाने का कोई संकेत नहीं?

2. चीख किसने सुनी? और अगर वो अंतिम क्षण की चीख थी, तो राघव के गले में आवाज़ कैसे बची थी?

3. कमरे का दरवाज़ा भीतर से बंद कैसे था, अगर कोई बाहर से आया और गया?

4. खिड़की से लटकी वो पुरानी तस्वीर — कहाँ से आई, और क्यों?

5. और सबसे अहम — “क्या सच में राघव अकेला था उस मंज़िल पर…?”


इस फाइल के मुख्य पात्र है :

राघव सिन्हा : मृत छात्र, हिंदी साहित्य का टॉपर — गहराई में जीने वाला, शांत स्वभाव का लड़का। हाल ही में उसने "आत्मा और परछाई" पर एक रिसर्च पेपर लिखा था।

प्रो. आशीष गुप्ता: हॉस्टल वार्डन — पुराने विचारों के सख़्त प्रशासक, नियमों से कोई समझौता नहीं करते।

कविता शर्मा: राघव की क्लासमेट और करीबी दोस्त — जिसने वो चीख सुनी थी, और जिसने पहले भी राघव के व्यवहार में "कुछ अजीब" नोटिस किया था।

तिलक मिश्र: राघव का रूम पार्टनर — घटना के समय हॉस्टल से बाहर था, पर अगले दिन लौटते ही कमरे की हालत देखकर चौंक गया।

जयवर्धन त्रिपाठी: सत्यसंधानकर्ता — इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा बुलाया गया रहस्य शोधकर्ता। वो न केवल तथ्यों पर काम करता है, बल्कि अनुभव, स्पंदन और "अदृश्य सूत्रों" पर भी।


अब सवाल ये है क्या जयवर्धन इस रहस्य को सुलझा पाएगा?या यह भी एक अनसुलझी चीख बनकर रह जाएगी?


...........


14 जुलाई, रात 2:08 बजे इलाहाबाद विश्वविद्यालय का गोपाल कृष्ण छात्रावास — एक ऐसा हॉस्टल, जिसकी ईंटों में वक्त की धूल बैठ चुकी थी, और जिसकी तीसरी मंज़िल पर अब शायद इंसान से ज़्यादा यादें बसती थीं। तीसरी मंज़िल की दीवारें नमी से भरी थीं, और लकड़ी की पुरानी खिड़कियाँ हवा के झोंकों से खुद-ब-खुद चरमराकर बंद हो जाती थीं — जैसे कोई अदृश्य हाथ उन्हें खींच लेता हो।


उस रात बारिश हो रही थी। मौन की चादर तनी हुई थी, और तभी — एक चीख गूंजी। तेज, धारदार, भीतर तक उतरती हुई चीख। चीख में इंसानी पीड़ा थी — लेकिन वो सिर्फ इंसानी नहीं थी। उसमें कोई और सुर भी था —कोई गूंज, कोई कंपन…जैसे कोई ऐसी चीज़ बोल रही हो, जो इंसानी भाषा नहीं बोलती, पर फिर भी सुनाई देती है।



सुबह 6:43 AM — बारिश थम चुकी थी, पर हवा में नमी अब भी लटकी थी। छात्रावास का ग्राउंड स्टाफ ऊपर पहुँचा — चौकीदार हरीलाल, सफाईकर्मी रज्जो बाई और वार्डन प्रो. आशीष गुप्ता। कमरा 307 का दरवाज़ा बंद था। भीतर से — कुण्डी लगी हुई थी।


पहले कॉल किया गया —राघव के मोबाइल पर… लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। फिर दरवाज़ा खटखटाया गया —“राघव! खोलो!” लेकिन कोई आवाज़ नहीं आई। फिर ज़ोर से पुकारा गया —"कमरे में हो तो बोलो! दरवाज़ा खोलो!!" लेकिन भीतर से सन्नाटा ही सन्नाटा छाया था।


और फिर… जब चाबी भी नाकाम हो गई, लोहे की रॉड से दरवाज़ा तोड़ा गया। कमरा खुलते ही एक ठंडी लहर बाहर आई —ना सिर्फ हवा की, बल्कि जैसे समय खुद कुछ पल के लिए ठहर गया हो। राघव एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बैठा था — कमर सीधी, गर्दन ज़रा एक ओर झुकी हुई। आँखें अधखुली थीं…और चेहरा ऐसा जैसे उसने कुछ “अकल्पनीय” देखा हो — कोई ऐसा दृश्य, जो शब्दों से बाहर था।


उसके गले पर एक हल्की नीली रेखा थी मानो किसी ने कस कर पकड़ा हो… पर कमरे में न कोई रस्सी थी,न कोई बेल्ट, और न ही कोई कपड़ा। कमरा अंदर से बंद था। काँच की खिड़की अंदर से कुंडी लगी थी। दरवाज़ा टूटा जाने तक पूरी तरह लॉक था।


और तब किसी का ध्यान गया कि खिड़की की सलाखों से कुछ हिल रहा था। देखा तो एक फटी हुई, पुरानी तस्वीर हवा में झूल रही थी — जैसे किसी अदृश्य धागे से बंधी हो।


तस्वीर धुंधली थी, भीगी हुई, किनारे से जली हुई — और उसके नीचे, बहुत हल्के हाथ से पेंसिल में लिखा था: "वो अब भी यहीं है..."


उसी शाम, विश्वविद्यालय में एक अनोखा आगंतुक आया —जयवर्धन त्रिपाठी, जो न तो पुलिस से था, न ही कोई पत्रकार।उसके बारे में कहा जाता था कि वो अपराध से ज़्यादा उसके पीछे छिपे भय को समझता है।


छात्रावास पहुँचते ही उसने पहला सवाल पूछा: "चीख किसने सुनी थी?" हॉल में सन्नाटा छा गया। फिर एक लड़की आगे आई — दूसरी मंज़िल की छात्रा, कविता शर्मा। "मैंने सुनी थी," उसने कहा, "रात 2:08 पर मेरी नींद खुली थी… चीख ऊपर से आई — जैसे कोई अपनी जान बचाने के लिए चिल्ला रहा हो।"


जयवर्धन ने उसकी आँखों में झाँका — “तुम अकेली थी?” "नहीं…" कविता ने धीरे से कहा, "मेरी रूममेट थी, लेकिन वो कुछ नहीं कहती… उसे कुछ सुनाई नहीं दिया।" जयवर्धन कुछ देर चुप रहा। फिर खिड़की की ओर देखा, फटी तस्वीर की ओर इशारा किया, और कहा: "अगर सिर्फ एक व्यक्ति चीख़ सुनता है — तो या तो वह बहुत होशियार है… या बहुत अकेला…"


...............


सुबह के 9:12 बजे, कमरा 307 अब आधिकारिक रूप से सील नहीं था, लेकिन उसकी हवा अभी भी वैसी ही थी —ठंडी, भारी, और किसी अदृश्य डर से जमी हुई। दीवारों पर नमी अब भी चुपचाप रेंग रही थी, और खिड़की के पास रखा स्टूल अब भी वहीं पड़ा था — जहाँ राघव आखिरी बार बैठा था।


मैं दरवाज़े पर रुका था। जयवर्धन त्रिपाठी — जो न रहस्य से डरता था, न आत्माओं से — मुझे इशारे से रोकते हुए धीमे स्वर में बोला: “आरव, यहाँ जो है… वो शब्दों से नहीं निकलेगा।चीज़ें… चुप रहकर बोलती हैं।” उसके चेहरे पर कोई डर नहीं था — बस एक अजीब सी जागरूकता, जैसे वो किसी पुराने परिचित के घर जा रहा हो।


कमरे में घुसते ही उसकी नज़र सीधे दरवाज़े के पीछे गई —जहाँ एक कोट टांगने वाला पुराना लकड़ी का हैंगर टंगा था।लेकिन उस हैंगर पर तीन गहरे खरोंच थे —साफ़-साफ, एक के बाद एक खींचे गए। नाखून? या कोई धातु जैसी नुकीली चीज़?


जयवर्धन झुका। उसने हाथ से निशान को छूआ। लकड़ी उखड़ी नहीं थी, बल्कि अंदर की ओर धंसी हुई थी —मानो खरोंच किसी 'घबराहट' से नहीं, बल्कि किसी 'इरादे' से की गई हो। “क्या राघव किसी से भिड़ा था?” "या फिर उसने कुछ देख लिया था… जो नहीं देखना चाहिए था?” जयवर्धन ने खुद से पूछा — लेकिन कमरे की हवा जैसे उसका जवाब जानती थी। 


टेबल पर एक नोटबुक खुली पड़ी थी। उसके आधे पन्ने फटे हुए थे, जैसे कोई बात आधी रह गई हो, या जानबूझकर छुपा दी गई हो। खुला हुआ पन्ना — नंबर 43। और उसमें सिर्फ एक लाइन थी: “वो लौटा है। लेकिन इस बार मैं अकेला हूँ।”


पंक्ति कांपती हुई लिखी गई थी — स्याही ज़रा फैली हुई, मानो लिखते वक़्त हाथ काँप रहा हो। जयवर्धन ने डायरी उठाई, नाक के पास ले जाकर सूंघा — और कुछ सेकंड तक चुप खड़ा रहा। फिर उसने धीमे स्वर में कहा: “यह स्याही साधारण नहीं है… यह सेंटेड इंक है — ऐसी स्याही जो भारत में आम तौर पर नहीं मिलती… इसे अक्सर विदेशी पत्रों, संग्रहालयी दस्तावेज़ों, या पुराने रजिस्टरों में प्रयोग किया जाता है।”


उसने मेरी ओर देखा — “मतलब राघव ने कुछ पुराना पढ़ा था… जो उसे नहीं पढ़ना चाहिए था।”

अब बारी थी खिड़की की… और उस तस्वीर की, खिड़की अब भी भीगी थी — मॉनसून की बूंदें स्टील की सलाखों पर धीरे-धीरे गिरती थीं। लेकिन असली रहस्य खिड़की के बाहर झूलती उस पुरानी तस्वीर में था। तस्वीर खिड़की की लोहे की ग्रिल में किसी ने कील ठोंक कर टाँगी थी। ठोंकने का तरीका अजीब था — मानो जल्दबाज़ी में नहीं, बल्कि बहुत सोच-समझ कर किया गया हो।


तस्वीर में तीन छात्र खड़े थे — एक राघव, दूसरा तिलक (उसका रूममेट), और तीसरे चेहरे पर काला गोला बना हुआ था — जैसे किसी ने जानबूझकर उसे फाड़कर मिटाया हो।


तस्वीर की पीछे एक तारीख़ पेंसिल से हल्के से लिखी थी: “जनवरी 2004 — हॉस्टल डे” जयवर्धन ने तस्वीर को गौर से देखा — फिर धीरे-धीरे कहा: “जिसे हम नहीं पहचान पा रहे…वो शायद अब तक यहीं है।” मैंने काँपती आवाज़ में पूछा, "मतलब… वो तीसरा लड़का?"


 "हाँ,"जयवर्धन बोला, “वो मरा नहीं है — बस तस्वीर से हटा दिया गया है। पर इस जगह से नहीं।”


...............



 

 दोपहर 1:42 PM यूनिवर्सिटी सिक्योरिटी रूम, छोटा सा कमरा — चार दीवारें, एक पुराना टेबल, और उस पर रखा एक ब्लैक DVR सिस्टम, जिसमें गोपाल कृष्ण हॉस्टल के कैमरे लगातार रिकॉर्डिंग कर रहे थे। स्क्रीन पर चार फुटेज विंडोज़ थीं: हॉस्टल का मुख्य गेट, ग्राउंड फ्लोर कॉरिडोर, तीसरी मंज़िल का सीढ़ी-मोड़, और सबसे अहम — कॉरिडोर का व्यू कमरा 307 के बाहर से।



प्रोफेसर आशीष गुप्ता DVR की रिकॉर्डिंग तेज़ी से स्क्रब कर रहे थे। “रात 2:07 — कोई हलचल नहीं,” उन्होंने कहा।प्लेबैक स्लो मोड में चलने लगा। “2:08 — ठीक इसी वक़्त चीख सुनी गई थी।” “लेकिन रिकॉर्डिंग में कोई नहीं…” उनकी आवाज़ में झुंझलाहट थी — या शायद डर छुपा हुआ था।



वो सेकंड... जो 'कुछ' लाया था, मैं स्क्रीन पर लगातार देख रहा था — कमरा 307 का दरवाज़ा, बिलकुल शांत, बिलकुल स्थिर था। 2:07:58…, 2:07:59… और बस एक सेकंड के लिए — लाइट हल्की सी डगमगाई। न पूरी तरह गई, और न पूरी तरह रही — बस जैसे किसी चीज़ ने बिजली के बहाव को छुआ हो।


और तभी… दीवार पर कुछ उभरा। एक धुंधली सी परछाईं।मानव आकृति जैसी — लेकिन कुछ ग़लत था उसमें। उसका सिर झुका हुआ था, जैसे गर्दन में अकड़न हो… या जैसे वो सीधे किसी की ओर देखने की बजाय, खुद को छुपा रहा हो।हाथ बढ़े हुए थे — ऐसे जैसे कोई किसी को पकड़ने वाला हो।या जैसे उसकी आँखों से पहले उसके हाथ पहुँचते हों। “ये… ये क्या था?” मैंने कंपकंपाती आवाज़ में पूछा।


जयवर्धन पीछे चुपचाप खड़ा था। उसने वीडियो को पॉज़ नहीं किया, न स्क्रीन की ओर उंगली उठाई — बस धीरे से बोला: “ये कोई ग्लिच नहीं है…” मैंने पलटकर उसकी ओर देखा। “मतलब?” “मतलब ये कि —कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं, जिन्हें कैमरे देख लेते हैं… पर इंसान समझने से इनकार कर देते हैं।” “और कभी-कभी… वो भी कैमरे को देख रही होती हैं।”


मैंने स्क्रीन को फिर देखा — लेकिन वो परछाईं अब नहीं थी।रीवाइंड किया — फिर भी नहीं। वो क्षण… केवल लाइव मोमेंट में था। रिकॉर्डिंग में अब वो फ्रेम गायब था। जैसे कोई जानता था कब और कितनी देर दिखना है। और सबसे डरावनी बात —कमरा 307 के दरवाज़े के हैंडल पर उस सेकंड में हल्का कंपन था। “कोई अंदर गया… पर दरवाज़ा कभी खुला नहीं।”


अब तक का रहस्य — एक सूत्र में: राघव ने किसी पुराने राज को छुआ था — शायद किसी निषिद्ध किताब या दस्तावेज़ के ज़रिए। कोई तीसरा छात्र, जो 2004 की तस्वीर में मौजूद था — अब सभी रिकॉर्ड्स से मिटा दिया गया है। CCTV में 2:07:59 पर एक क्षणिक परछाईं दिखती है — मानवीय आकार की, लेकिन व्यवहार में कुछ अलौकिक। राघव की डायरी, खरोंचें और मौत का ढंग — सभी कुछ “वापसी” की चेतावनी दे रहे हैं।


जयवर्धन ने धीमे स्वर में निष्कर्ष निकाला: “अगर कोई लौटता है… तो उसका अतीत भी साथ लौटता है।” “राघव ने शायद सिर्फ किसी को नहीं देखा था… बल्कि पहचान लिया था।”


(जारी...)