नागवंश: अंतिम उत्तराधिकारी भाग: २



दिल्ली से चली पुरानी हरी-नीली बस अब पहाड़ी रास्तों पर गूंजती हुई चढ़ रही थी। पीछली सीट पर बैठा आर्यन रावत — एक शांत, गम्भीर और अपने भीतर डूबा हुआ नौजवान — खिड़की से बाहर नहीं, बल्कि अपने अंदर झाँक रहा था।

उसके चेहरे पर हल्की ठंडी हवा बार-बार आकर टकरा रही थी। बाल उलझ रहे थे, पर उसने उन्हें सँवारने की कोई कोशिश नहीं की। कंधे से टिका उसका बैग अब तक उसी हालत में था जैसा बस चढ़ते वक़्त था।


उसकी गोद में वही भूरे रंग की पुरानी डायरी थी — जिसमें मोटे अक्षरों में लिखा था: “नागवंश अनुसंधान प्रकल्प — व्यक्तिगत नोट्स / आर्यन रावत”


डायरी खुली थी। पन्ने पर उसकी रात की लिखावट अब भी ताज़ी लग रही थी — जैसे कागज़ अब तक उस भावना को संजोए हुए हो जो उस वक़्त उसकी कलम में थी: “अगर नागवंश केवल कल्पना है — तो इतने संकेत क्यों हैं?” “अगर पिताजी की मौत हादसा थी — तो रिकॉर्ड अधूरा क्यों है?”


आर्यन की उंगलियाँ उसी वाक्य को बार-बार सहला रही थीं — जैसे उसे छूकर वह किसी जवाब की उम्मीद कर रहा हो।उसकी आँखें खुली थीं — पर पलकें थकी हुई। वो कई घंटों से सोया नहीं था।


पिछली रात उसे ठीक से नींद नहीं आई थी — उस सपने ने फिर से पीछा किया था… एक जली हुई नदी…राख में तब्दील पेड़…और कुछ आँखें — साँप की तरह चमकती हुई — उसे घूरती थीं…




हर बार जब वह उन आँखों को देखने की कोशिश करता, उसका पूरा शरीर जैसे जम जाता था। उसे नहीं पता था कि वह सपना था… या कोई स्मृति।



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बस अब मैदानों से निकलकर पहाड़ों की तरफ़ मुड़ चुकी थी।सड़कें सँकरी हो चुकी थीं। नीचे गहरी खाइयाँ और ऊपर घने जंगल… और हर मोड़ पर झटके। पर आर्यन की नज़रें अब भी उसी डायरी पर थीं। उसने हल्के से डायरी बंद की…सिर सीट की टेक से टिकाया… और आँखें बंद कर लीं। पर दिमाग अब भी बंद नहीं हुआ था।



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उसे याद था वो वाकया… जब उसने पहली बार अपने पिता की मौत का जिक्र सुनकर प्रश्न उठाया था — तो हर किसी ने बात घुमा दी थी। “कार एक्सीडेंट था बेटा…” “कुछ नहीं था उसमें… पुराने केस हैं…” “सरकारी रिकॉर्ड कभी-कभी अधूरे रह जाते हैं…”


लेकिन आर्यन के लिए वो “अधूरा रिकॉर्ड” एक सुराग था —उस इतिहास की ओर जिसका ज़िक्र किताबों में नहीं मिलता, जिसका मानचित्रों पर कोई नाम नहीं है, और जो ज़िंदा है… केवल लोककथाओं और भय में।



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बस की खिड़की के बाहर एक बोर्ड दिखा: "बागेश्वर जिला – आपका स्वागत है" आर्यन ने आँखें खोलीं। उसने धीमे से अपने फोन को देखा — कोई नेटवर्क नहीं। उसने जीपीएस ऐप खोला — “लोकेशन: नॉट फाउंड”


वो हल्के से मुस्कराया। जैसे उसे पहले से पता था। चमकुंड “एक गाँव… जो नक्शों में नहीं मिलता…”

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11 घंटे की यात्रा के बाद…आर्यन की बस जब बागेश्वर बस अड्डे पर पहुँची, तो पहाड़ियों के पीछे सूरज अब डूबने को था।सुनहरी रौशनी अब हल्की गुलाबी होकर क्षितिज में घुल रही थी। चारों तरफ़ एक ठंडी-सी नमी वाली हवा थी — जिसमें देवदार और झाड़ियों की खुशबू मिली हुई थी।


बस स्टैंड छोटा था — एक पुरानी छत, लोहे के खंभे, और चारों तरफ घूमती स्थानीय जीपें, टैक्सियाँ और कुछ दुकानदार। आर्यन ने थके हुए कदमों से ज़मीन पर पैर रखा।उसने एक लंबी साँस ली — जैसे दिल्ली के बोझ से कुछ हल्का हुआ हो।


तभी एक आवाज़ आई, जो उसकी तरफ़ बढ़ रही थी — “आप ही आर्यन सर हैं?” आर्यन ने सिर घुमाया। एक आदमी खड़ा था — करीब 30–32 की उम्र, घुटी हुई दाढ़ी, गहरे रंग की जैकेट, और कंधे पर लटका लोकनिर्मित बैग।


उसकी आँखों में तेज़ था — और चाल में पहाड़ी सरलता।आर्यन ने सिर हिलाकर हामी भरी। “मैं प्रदीप हूँ सर… लोक प्रशासन की तरफ़ से रिसर्च दल की सहायता के लिए लगाया गया हूँ। आप ही को लेने आया था।”


आर्यन ने उसके हाथ मिलाया। “बाकी टीम कब तक पहुँचेगी?” — उसने सीधा सवाल किया। प्रदीप ने हल्की मुस्कान के साथ कहा — “सर, वो लोग दो दिन बाद पहुँचेंगे —लेकिन आपको चमकुंड आज ही निकलना होगा।”


आर्यन थोड़ा चौंका — “आज?” प्रदीप ने सिर हिलाया। “जी सर… आदेश में यही लिखा है। चमकुंड का रास्ता दिन में भी ठीक नहीं रहता, और रात को तो… खैर… मैं कहूँगा कि हमें जितना जल्दी हो निकल चलना चाहिए।”


आर्यन कुछ पल चुप रहा। उसके मन में हलचल हुई — दो दिन अकेले किसी अनजान गाँव में… जिसके बारे में आधिकारिक रिकॉर्ड में भी ज़िक्र नहीं…लेकिन वो जानता था —उसे जाना ही था। उसने प्रदीप की आँखों में देखा — उसे वहाँ कोई डर नहीं दिखा, पर एक संकेत ज़रूर था — जैसे वह कुछ जानता हो… पर कहना नहीं चाहता।


आर्यन ने अपनी डायरी बैग में रखी और कहा — “ठीक है। चलो। रास्ता जितना अजीब हो — मैं तैयार हूँ।” प्रदीप ने पास खड़ी एक पुरानी जीप की ओर इशारा किया। उस जीप की बॉडी पर मिट्टी की परत जमी थी, और पीछे के शीशे पर सफ़ेद पेंट से लिखा था —"वन निगम – सीमित प्रवेश"


आर्यन की निगाह उस टैगलाइन पर टिकी रही कुछ सेकंड…फिर उसने जीप में कदम रखा —और वो सफर शुरू हुआ…जिसे सरकारी नक्शों में “अनजान क्षेत्र” कहा जाता था।

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प्रदीप की पुरानी जीप ज़ोरदार घर्र-घर्र की आवाज़ के साथ ऊँचाई की ओर बढ़ रही थी। आर्यन बगल वाली सीट पर बैठा, शीशे से बाहर झाँकता रहा। शुरुआत में रास्ता ठीक था — पक्की सड़क पर चलते हुए दूर-दूर तक हरियाली, छोटे गाँव, कुछ स्थानीय दुकानें और खेतों में काम करते लोग।


लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए, कंक्रीट की सड़कें धीरे-धीरे कंकड़ और मिट्टी में बदलती चली गईं। सड़क अब सँकरी हो चली थी — दो तरफ़ गहरी खाइयाँ, और सामने उठते पहाड़।जीप हर झटके पर चरमराती, काँपती — मानो उसे भी पता हो कि वो किसी आम जगह की ओर नहीं जा रही।


करीब एक घंटे बाद, जीप एक मोड़ पर रुकी। प्रदीप ने इंजन बंद किया, और बोला — “अब यहाँ से पैदल जाना होगा, सर।चामकुंड की आखिरी 3 किलोमीटर की चढ़ाई इसी जंगल से होकर जाती है।” आर्यन ने नीचे उतरते ही एक गहरी साँस ली।सामने था एक स्याह, घना जंगल — जिसकी ऊँचाईयाँ धुँध में गुम हो रही थीं।

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वे दोनों अब एक संकरी पगडंडी पर चल रहे थे — जो धीरे-धीरे पहाड़ की ढलान पर चढ़ती जाती थी। दोनों ओर बांस के ऊँचे झुंड थे — जो हवा चलने पर आपस में टकराकर एक सरसराहट सी आवाज़ पैदा कर रहे थे, जैसे कोई धीमे सुर में कुछ फुसफुसा रहा हो। झाड़ियों से रास्ता इतना ढँका था कि पगडंडी के बाहर का कुछ दिखाई ही नहीं देता।


बीच-बीच में कुछ सूखे पेड़ आते थे — जिनके तनों पर लाल रंग से उकेरे गए चिन्ह थे: त्रिशूल… साँप की कुंडली… और कुछ अजीब रेखाएँ, जो मानो किसी पुरानी भाषा के अक्षर हों।


प्रदीप ने एक ऐसे ही पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा — “ये निशान पुराने देवता के हैं… यहाँ हर पेड़ एक पहरेदार है, सर। ये रास्ता उन तक पहुँचता है जिनका नाम अब लोग लेने से भी डरते हैं।” आर्यन बिना कुछ बोले — हर चिन्ह को ध्यान से देखता रहा।


उसकी नज़र अब हर पेड़ की छाल, हर चिन्ह, और हर फुसफुसाहट पर थी। यह जंगल साधारण नहीं था। यह स्मृति था — जिसे मिटाने की कोशिश की गई थी, पर जो अब भी साँस ले रहा था… हर तने, हर छाया और हर निशान में।


कुछ दूर चलने के बाद हवा में हल्की ठंडक भर गई थी। प्रदीप की चाल में थोड़ी सावधानी थी, और उसकी आँखें बार-बार पीछे की ओर देखती थीं। “सर, अगर रास्ते में कुछ आवाज़ें सुनाई दें तो बस बिना देखे चलिएगा। जंगल जवाब नहीं देता, पर हर सवाल याद रखता है…” आर्यन ने पलटकर उसकी तरफ़ देखा — कुछ पूछना चाहा, लेकिन उसने खुद को रोक लिया।


क्योंकि उसकी रिसर्च डायरी का एक पन्ना उसे बार-बार याद दिला रहा था: “कभी-कभी इतिहास मिटाया नहीं जाता… वो खुद को छुपा लेता है।”


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और अब… वे चामकुंड के अंतिम मोड़ पर थे — जहाँ से झोंपड़ियों की छाया और एक शांत, पर अनकही उपस्थिति महसूस हो रही थी।

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शाम पूरी तरह ढल चुकी थी, जब आर्यन और प्रदीप ने आख़िरी मोड़ पार किया। सामने एक ढलान पर बसा था —चामकुंड एक ऐसा गाँव जो किसी सरकारी नक्शे पर नहीं, सिर्फ स्मृति और मान्यता में ज़िंदा था। 12–13 घर —लकड़ी और पत्थरों से बने, जिनकी छतें स्लेट के पत्थरों से ढँकी थीं।


चारों ओर गहराता अंधेरा था — पर गाँव में कोई रोशनी नहीं थी, सिर्फ़ कुछ घरों के बाहर धीमी-सी सरसों के तेल की ढिबरी जल रही थी, जो पीली लौ में काँप रही थी। हर घर के दरवाज़े पर कुछ न कुछ उकेरा गया था — कहीं हल्दी से बने वृत्त, कहीं भस्म से खींची तीन रेखाएँ, और कुछ के ऊपर नाग की आकृति, जैसे हर प्रवेश द्वार को रक्षा-कवच की तरह ढँका गया हो।


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गाँव की गलियाँ सँकरी थीं — मिट्टी और पत्थर की बनी, जहाँ हवा नहीं, सन्नाटा बहता था। आर्यन जब पगडंडी से नीचे उतर रहा था, तो उसकी नज़र बच्चों पर पड़ी — जो घरों के कोनों में खड़े थे, और चुपचाप उसे घूर रहे थे।


वे कुछ बोले नहीं — लेकिन उनकी आँखों में वो जिज्ञासा थी जो भय और श्रद्धा के बीच की होती है। वहीं कुछ दूरी पर, चार बुज़ुर्ग बैठे थे —जिनके चेहरे झुर्रियों में नहीं, अनुभव में ढँके थे।


उन्होंने आर्यन को देखते ही बातचीत धीमी कर दी। एक ने अपनी कमर सीधी की और धीमे स्वर में कुछ कहा —जो हवा के साथ तैरता हुआ आर्यन तक पहुँचा: “वो दिल्ली वाला आ गया है…” दूसरे ने सिर झुकाकर फुसफुसाया: “कहते हैं… नाग मंदिर फिर जाग गया है…” तीसरे की आँखें कुछ ज़्यादा देर तक आर्यन के हाथ पर टिकी रहीं, और उसने अस्फुट स्वर में कहा — “उसके हाथ में वही रेखा है…”





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आर्यन ठहर गया। उसने अपनी हथेली की ओर देखा — जहाँ बचपन से एक उलझी हुई नीली नस त्रिशूल-सी आकृति बनाती थी। उसे याद था — उसके पिता कहा करते थे: “ये तेरे खून का रहस्य है बेटा, कभी समझा… तो इतिहास बदल देगा।”

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गाँव में कोई उसका नाम नहीं जानता था… उससे कोई बात नहीं कर रहा था… पर फिर भी —हर चेहरा उसे जानता था।उसने अपने आप से कहा — “यहाँ मुझे जानने के लिए किसी को मुझे देखना ज़रूरी नहीं पड़ा। शायद… मैं पहले से ही उनकी स्मृति में हूँ।”

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प्रदीप ने उसे एक पुराने घर की ओर इशारा किया। “यही है रिसर्च टीम के लिए तय किया गया घर, सर… अंदर एक बूढ़ी महिला है — शांति दादी। वही देखभाल करती हैं… पर ज्यादा बात मत कीजिएगा उनसे — वो कुछ चीज़ों के बारे में बात करना पसंद नहीं करतीं।”


आर्यन ने दरवाज़े की ओर देखा — जहाँ पीले धागों से लटकता नींबू और मिर्च अभी भी ताज़ा लग रहा था। उसने हाथ बढ़ाकर दरवाज़ा खोला…और भीतर कदम रखते ही —एक संगीन ठंडक उसके पूरे शरीर में उतर गई। जैसे दीवारें सिर्फ ईंट और पत्थर से नहीं, बल्कि छिपे हुए वचनों और मौन शपथों से बनी हों।

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चामकुंड, अब उसके सामने था — पर जो कुछ वह खोजने आया था… वो शायद उसे ही ढूँढ रहा था।


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गाँव की आखिरी पगडंडी पार करते ही एक वीरान-सा भवन सामने आया। पत्थर की दीवारें, टीन की पुरानी छत, और बरामदे में लटकता एक झूलता बल्ब जिसमें बिजली नहीं, सिर्फ जर्जर इतिहास टिमटिमा रहा था।


यह था — चामकुंड वन विभाग का गेस्ट हाउस। जिसे कभी सरकारी ठहराव के लिए बनाया गया था, अब वर्षों से इस्तेमाल नहीं हुआ था। प्रदीप ने दरवाज़ा खोला —दरवाज़ा एक कर्कश चरमराहट के साथ खुला, जैसे किसी ने उसे बरसों बाद छुआ हो।

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अंदर घुप्प अंधेरा था। दीवारों पर सीलन की धब्बियाँ, लकड़ी की सीढ़ियाँ जो हर कदम पर चीं-चीं कर उठतीं, और फर्श — जो नमी से हमेशा गीला लगता था। कमरे में बस कुछ ही सामान था —एक पुरानी मेज़, एक भारी-भरकम काठ की अलमारी जिसके हैंडल में जंग जमा था, और एक कोना — जहाँ पर एक टूटी सी चारपाई बिछी थी। दीवार पर एक धुंधली-सी तस्वीर टँगी थी।


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आर्यन ने बैग रखकर उस तस्वीर की ओर देखा। तस्वीर थोड़ी झुकी हुई थी, उस पर धूल की परत जमी थी — जैसे किसी ने उसे सालों से छुआ ही न हो। उसने तस्वीर को साफ़ करने के लिए हाथ उठाया, और धीरे से उस पर जमी धूल हटाई। तस्वीर में एक आदमी खड़ा था — खाकी वर्दी में, कंधे पर नेमप्लेट, सिर पर टोपी, और आँखों में पहाड़ों जैसी गहराई।


आर्यन की साँस अटक गई। उसने तस्वीर के नीचे लिखा नाम पढ़ा — "आर. एस. रावत – फॉरेस्ट ऑफिसर, 2008" आर्यन का गला सूख गया। यह वही थे —उसके पापा।


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उसने पीछे हटकर दीवार को टटोलते हुए कुर्सी पकड़ी और चुपचाप बैठ गया। कमरे की खामोशी अब भारी लग रही थी।जैसे ये चार दीवारें उसके पिता की कहानियों को अब भी अपने अंदर कैद किए बैठी हों। उसने सिर झुकाया, बैग से अपनी रिसर्च डायरी निकाली और पेन खोला।


उसने उस रात… बस एक ही पंक्ति लिखी — “मैं उस जगह पर हूँ… जहाँ आखिरी बार उन्होंने साँस ली थी। और मैं जानना चाहता हूँ — क्या उन्होंने कुछ छोड़ा था?”

उस पंक्ति के बाद — वो पन्ना खुला ही रह गया

। क्योंकि जवाब अब किताबों में नहीं, इस गाँव की हवाओं और मंदिर की सीढ़ियों में छिपा था।

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(जारी है.....)