स्थान: चामकुंड का गुप्त जलकुंड — रात, पौने तीन बजे, घड़ी की सुईयाँ धीरे-धीरे समय को निगल रही थीं। रात की चुप्पी अब शोर बन चुकी थी। जैसे हर पेड़, हर पत्ता, हर साँस किसी अदृश्य भय से जकड़ा हो।


आर्यन, अपने दिल की धड़कनों को सुनता हुआ, काँपते हुए कदमों से उस प्राचीन जलकुंड के किनारे आ खड़ा हुआ —जिसके बारे में सिर्फ़ दंतकथाएँ थीं… या शायद भूलें हुई भविष्यवाणियाँ।


जलकुंड के ऊपर मंडराती हल्की नीली रोशनी…जैसे चाँदनी यहाँ आने से डरती हो… पानी के नीचे से एक धीमी, खुरदुरी, गूँजती आवाज़ उभरी — "स्वागत है… अंतिम उत्तराधिकारी…"




आर्यन का गला सूख गया। उसने भयभीत होकर इधर-उधर देखा, पर चारों ओर सिर्फ़ सन्नाटा था। हवा अब स्थिर नहीं रही… वह उसके चारों ओर घूमने लगी… जैसे कोई उसे छू रहा हो। काँपती आवाज़ में आर्यन ने पूछा — “क… कौन है?”




एक पल को मौन पसर गया। पत्तों की सरसराहट भी थम गई…और फिर… झाड़ियों के पीछे कुछ हिलता है। क़दमों की धीमी आहट… सूखी पत्तियों पर घिसती कोई लकड़ी की आवाज़… और झाड़ियों से एक आकृति बाहर निकलती है।


वो आकृति थी —एक वृद्ध व्यक्ति की, जिसने गहरे भूरे रंग का एक पुराना शॉल ओढ़ रखा था, जिसके सीने पर बना था एक नाग आकृति वाला प्रतीक। उसकी आँखें —निस्तेज लेकिन भीतर से चमकती हुईं। जैसे किसी ने उनमें एक युग की चेतना कैद कर दी हो। हाथ में एक लंबी, लकड़ी की छड़ी थी जिसके छोर पर एक नागफन उकेरा गया था…जिसमे मंत्र उसके फन पर महीन रेखाओं से उकेरे गए थे।


वो कुछ कदम आर्यन की ओर बढ़ा, लेकिन आर्यन ने भय के मारे दो क़दम पीछे खींच लिए। वृद्ध रुका और मुस्कराया।उसके चेहरे पर एक थकान थी — वर्षों की प्रतीक्षा की थकान।


वह धीरे से बोला — “मुझे तू नहीं पहचानता…लेकिन मैं तुझे जानता हूँ… तेरे रक्त को भी… और उस वंश को भी… जिससे तू दूर हो गया।” आर्यन अब और उलझ चुका था। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। “आप… कौन हैं?”


वृद्ध ने बिना जवाब दिए अपनी छड़ी ज़मीन में टिकाई —और कुंड के पास जाकर बैठ गया। वहाँ की मिट्टी मानो उसके लिए जानी-पहचानी थी। जलकुंड से उठती भाप अब उसके चारों ओर एक आवरण बना रही थी। उसने एक गहरी साँस ली… और कहा — “मैं हूँ ‘पाराशर’… नागवृक्ष का अंतिम सेवक। तेरे पिता रघुनाथ सिंह रावत भी यहीं आए थे… इसी जलकुंड के सामने। उन्होंने चुना था बलिदान… ताकि तू जीवित रह सके।”


आर्यन अब अवाक था। उसके होंठ सूख चुके थे… और आंखें भटकी हुई सी थी। रघुनाथ सिंह रावत…? उसके पिता… जिनकी मौत एक "हादसे" में हुई थी? वो यहाँ आए थे? इस कुंड तक? क्यों? और कब?


वो कुछ बोलता, उससे पहले वृद्ध ने फिर कहा —“तेरे पिता ने सत्य छुपाया… लेकिन आज… वह समय लौट आया है… जब वंश को फिर से जागना होगा। क्योंकि जो नाग आज सोया है… वो सिर्फ़ निद्रा में है… मृत नहीं।”


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अतीत में – वर्ष 1996, चामकुंड का वही गुप्त जलकुंड, रात के तीसरे पहर की शुरुआत हो चुकी थी। नीचे घाटी में घना कोहरा पसरा हुआ था —और उस कोहरे के बीच, चामकुंड के गुप्त जलकुंड तक पहुँचे थे —रघुनाथ सिंह रावत।


उनकी साँसें तेज थीं, लेकिन आँखों में संकल्प की ज्वाला थी।हाथ में थी — वही पुरानी काली मखमली डायरी जिसमें पीढ़ियों से छिपा था नागवंश का आखिरी रहस्य।


उनके सामने खड़ा था —एक उम्रदराज़ व्यक्ति, लहराते बाल, गहरी आँखें और साँवला, थका सा चेहरा। पाराशर — नागवृक्ष का अंतिम सेवक।


जलकुंड के पास खड़ा पाराशर बोल रहा था जैसे कोई भविष्यवाणी पढ़ रहा हो: “तू जानता है, यह रास्ता सिर्फ़ रक्त से खुलता है। और एक बार ये द्वार खुला… तो तू वापस नहीं लौटेगा, रघुनाथ।”


रावत की आँखें एक क्षण को भर आईं। उनके हाथ काँपे, लेकिन वो रुके नहीं। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी आस्तीन चढ़ाई और अपनी कलाई पर खंजर चलाया। गाढ़ा लाल रक्त उनकी हथेली से बहकर नीचे गिरा।


जलकुंड शांत था… लेकिन जैसे ही पहली बूँद उस काले जल को छूती है — एक उबाल-सा उठता है। जल हिलता है, गूँजता है, और उसके भीतर से उठती है एक नागाकार आकृति —धुँए से बनी, लेकिन चेतन।


पाराशर धीरे से बुदबुदाता है: “यही है — मूल-सर्प की मुहर।तेरे रक्त से ही यह जागेगा। और इसी से तेरे पुत्र का जीवन बचेगा।”


रावत एक पल को जलकुंड की ओर देखता है, फिर दृढ़ स्वर में कहता है —“अगर मेरा रक्त मेरे वंश की रक्षा कर सकता है, तो मैं तैयार हूँ।” उसने झुककर अपनी पूरी हथेली जलकुंड के भीतर डुबो दी।


जैसे ही उसका रक्त जल में घुलता है —एक विस्फोट-सा होता है… जल अब जल नहीं रह जाता… वह काला, गरमाता हुआ तरल बन चुका है। वह रावत की कलाई को पकड़ता है, खींचता है… और फिर… जल उसे निगल जाता है। ना कोई चीख, ना संघर्ष — बस मौन बलिदान।


धीरे-धीरे वो आकृति जो जल से बनी थी, अब सघन हो रही थी… और उसी आकार में बदल रही थी — जिसे अब ‘संरक्षक’ कहा जाएगा।


वो अब रघुनाथ नहीं रहा… वो बन चुका था एक अभिशप्त रक्षक — जो अब ना मर सकता था, ना ही जी सकता था… बस निगहबानी कर सकता था — अपने पुत्र और अपने वंश की।


पाराशर ने नीचे सिर झुकाया, और फुसफुसाया: “तेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा… पर अब तेरा पुत्र ही वो है… जो नागवृक्ष को पुनः जगा सकेगा…”


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वर्तमान — चामकुंड का गुप्त जलकुंड, आर्यन स्तब्ध खड़ा था।वो हवा में किसी ठंडी अदृश्य परछाईं की तरह काँप रहा था।उसके भीतर कुछ टूटा नहीं था —बल्कि कुछ जाग चुका था। “तो वो मरे नहीं थे?” उसकी आवाज़ में घबराहट थी…शंका भी… और एक उम्मीद भी।


पाराशर — जो अब तक शांत और धैर्यपूर्ण खड़ा था, धीमे स्वर में बोला, मानो कोई रहस्य उजागर कर रहा हो: “नहीं… वे मृत्यु से परे गए थे… वे अब समय से परे एक चेतना बन चुके हैं। और अब… वो जल तुझे पहचानता है, क्योंकि तुझमें वही रक्त है — जो नागवंश के मूल से जुड़ा है।”


आर्यन की आँखें जलकुंड की ओर गईं। वहाँ की सतह अब स्थिर नहीं रही। एकाएक — जल हलचल करने लगा। शुरू में छोटी-छोटी तरंगें बनीं… फिर वो तरंगें गोलाकार लहरों में बदल गईं… जैसे किसी अदृश्य ऊर्जा ने उसे छुआ हो।


आर्यन झुकता है — और नीचे देखता है। लेकिन वहाँ उसे अपनी परछाईं नहीं दिखती… बल्कि दिखता है एक विशाल, गहरा, प्रतीक्षारत नाग का चेहरा। उसके फन पर सफ़ेद रेखाओं में कुछ लिखा था, जैसे कोई मंत्र, जो पढ़ा नहीं जा सकता था… बस महसूस किया जा सकता था। पर जो चीज़ सबसे विचलित करने वाली थी… वो थीं उस नाग की आँखें।गाढ़ी भूरी आँखें… ठीक वैसी… जैसी उसकी माँ की थीं।




आर्यन की साँसें तेज हो गईं। उसके पैरों में कंपन हुआ। उसने घबराकर पाराशर की ओर देखा और पूछा: “ये क्या है?”




पाराशर ने आँखें मूँद लीं — जैसे वह उस उत्तर को पहले ही जानता हो। वह धीरे से बोला, एक पुरानी गाथा दोहराते हुए: **“यह वंश केवल नागों का नहीं है, आर्यन… यह एक संकर वंश है — मनुष्य और नाग के बीच जन्मा रक्त…एक मिश्रण जो सृष्टि के नियमों को लाँघता है। यह रक्त… या तो एक शाप बनता है…या बनता है सिद्धि। यह इस बात पर निर्भर करता है —कि तू किसे चुनता है।”**




आर्यन की उँगलियाँ काँप रही थीं। उसका शरीर पसीने से भीगा हुआ था… लेकिन उसके भीतर एक और चीज़ थी —कसक। एक सत्य की कसक… जो उससे पूरी ज़िंदगी छिपाया गया।


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जंगल की हवा अब और भारी हो चुकी थी। चारों ओर सन्नाटा ऐसा था…जैसे पूरी प्रकृति रुक कर कुछ देखने को मजबूर हो।


पाराशर, धीरे-धीरे आर्यन की ओर मुड़ा। उसके स्वर में अब भविष्यवाणी जैसी ध्वनि थी —गूँजती हुई, स्थिर… लेकिन निर्णायक। “अभी कुंड ने तुझे स्वीकार नहीं किया।”


आर्यन की भौंहें सिकुड़ गईं। वो कुछ पूछने ही वाला था, लेकिन पाराशर ने मौन के संकेत में एक हाथ उठा दिया। और फिर बोलता चला गया — **“लेकिन अब इसकी परीक्षा शुरू हो चुकी है… तू अगर पीछे हटा — तो तेरा रक्त उसे वापस बुला लेगा… और वो तुझे छोड़कर तेरे अपनों को छीन लेगा…और अगर तू आगे बढ़ा — तो वंश तुझे खा जाएगा…या तुझे छीन लेगा।”**


आर्यन स्तब्ध था। क्या ये कोई चेतावनी थी? या उसे किसी ऐसे निर्णय की ओर धकेला जा रहा था, जिससे कोई लौट नहीं सकता?



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आर्यन की निगाहें जलकुंड पर टिकी थीं। उसका चेहरा अब डर और संशय का नहीं, बल्कि भीतर से उठती जिज्ञासा और बेचैनी का प्रतिबिंब था। वो एक क़दम आगे बढ़ता है।


कुंड अब नीला नहीं, काला पड़ चुका है —लेकिन उसकी सतह पर हल्की-हल्की धड़कनें हैं… जैसे वो सांस ले रहा हो।और तभी — झाड़ियों के पीछे कुछ हिलता है।

वहाँ…एक जोड़ी जलती हुई लाल आँखें झाड़ियों से झाँक रही थीं। वे आँखें इंसानी नहीं थीं… वे बड़ी थीं, स्थिर थीं… और घृणा से भरी हुईं। उन आँखों के पीछे था एक साया —धुँधला, विकृत, और अस्पष्ट।


वो चल नहीं रहा था… वो बह रहा था —जैसे उसका शरीर ही धुएँ से बना हो। वो साया आर्यन को देख रहा था… जैसे वो तय कर चुका हो कि "अगर आर्यन नहीं चुनेगा… तो मैं चुनूँगा उसे।”



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तभी आर्यन झुकता है। धीरे से अपना हाथ बढ़ाता है। कुंड अब कांप रहा है, और जैसे ही उसकी उँगलियाँ जल को छूती हैं —एक “गूँज” होती है। जलकुंड गरज उठता है — जैसे किसी ने ज़मीन के नीचे सोई कोई चेतना जगा दी हो।




धरती काँपती है। झील की लहरें उठती हैं और चारों दिशाओं में फैल जाती हैं। पाराशर की 

आँखें बंद हो जाती हैं। वो बस एक वाक्य बुदबुदाता है —“अब इसे कोई नहीं रोक सकता…”



(जारी है....)