वर्तमान – चामकुंड गेस्ट हाउस, देर रात कमरे के अंदर पुरानी लकड़ी की दीवारों से सन्नाटा रिस रहा था। आर्यन उस भारी अलमारी की निचली दराज में झुका था — जिस पर उसके पिता की तस्वीर अब भी टेढ़ी-सी टँगी थी।
अलमारी के कोने में एक चीज़ थी — एक फटी हुई, पिघली-सी पुरानी फाइल, जिसका कवर अब लगभग घिस चुका था।आर्यन ने उसे धीरे से निकाला। फाइल का पहला पन्ना हल्की रोशनी में चमक उठा, और उस पर लिखा था: "वन विभाग: फिल्ड नोट्स – ऑफिसर आर.एस. रावत"
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आर्यन की साँसें थम गईं। उसने पन्ने पलटे। अंदर एक टाइटल पेज था — जिस पर काँपती हुई रोशनी में उभरता था:
मिशन रिपोर्ट: मूल सर्प मंदिर – निरीक्षण मिशन
दिनांक: 18 जून 2008
अधिकारी: आर. एस. रावत (वन अधिकारी – श्रेणी A)
स्थान: चामकुंड क्षेत्र, पिंडारी वन ज़ोन
अधिकृत प्रवेश कोड: DK-07/NSRM
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आर्यन की उंगलियाँ काँप रही थीं। ये वही तारीख़ थी… जिस दिन उसके पिता “गायब” हुए थे। वो बैठ गया —फाइल की धूल धीरे-धीरे उसकी हथेलियों में लग रही थी, और आँखों के सामने बीते शब्द ज़िंदा हो रहे थे।
पहला पन्ना — आर.एस.रावत के हाथों की लिखावट में: “18 जून 2008 — आज हमें चामकुंड क्षेत्र के पिंडारी जंगल में एक पुराने स्थल की सूचना मिली है, जिसे स्थानीय लोग ‘मूल सर्प मंदिर’ कहते हैं।”
“स्थान अब दर्ज नहीं है किसी सरकारी मानचित्र में, लेकिन ग्राम स्तर के नक्शों में ‘शिला क्षेत्र 09-सी’ के पास इसका संकेत है।” “स्थानीय गाइड — पंकज डुमका साथ है।”
 “स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, ये स्थल सक्रिय नहीं, बल्कि ‘सुप्त’ अवस्था’ में है।”
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 “हम दोपहर 2:00 बजे पिंडारी टॉप से नीचे उतरकर शिला क्षेत्र पहुँचे।” “वहाँ एक ऊँची चट्टान थी, जिस पर अनेक ‘सर्प प्रतीक’ खुदे थे।”
“किसी भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ये स्थल पूर्व-आधुनिक है।यानी संभवतः वैदिक युग से भी पहले का।”
“मैंने स्थल की स्पंदनात्मक ऊर्जा को महसूस किया —और एक विचित्र ध्वनि जो… गूंजती थी, पर आती कहीं से नहीं थी।”
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आर्यन की आँखें चौड़ी हो गईं। उसने रुककर अपनी सांस को सम्हाला। ये एक वन अधिकारी की रिपोर्ट नहीं थी —ये किसी ऐसे व्यक्ति की लिखावट थी जिसने अनदेखे को देखा, अनसुने को सुना।
अगली पंक्तियाँ: “मैंने जब चट्टान पर हाथ रखा, तो जमीन के नीचे एक हलचल सी महसूस हुई।” “वो सिर्फ़ कंपन नहीं था…”
 “जैसे कोई बहुत पुराना साँप अपनी नींद में करवट ले रहा हो।” “पंकज डर गया — और वो भाग गया।”
 “लेकिन मैंने वहीं रहकर — शिला के चारों ओर देखा…”
 “एक जगह — जहाँ घास नहीं उगती…”
 “और मिट्टी गर्म है — जैसे कोई द्वार है, जो सिर्फ़… अंदर से खुलता है।”
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आर्यन के चेहरे पर पसीना आ गया था। उसने सिर उठाकर कमरे की दीवारों को देखा — मानो वहाँ कुछ बदल गया हो।उसके हाथ काँपते हुए अगली पंक्ति की ओर बढ़े — लेकिन वहाँ कुछ नहीं था। रिपोर्ट…वहीं अधूरी थी।

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पन्ना नीचे की तरफ़ जला हुआ था — जैसे किसी ने जानबूझकर कुछ मिटा दिया हो। या शायद…“वो जो जागा था… उसने खुद मिटाया हो।”
आर्यन ने फाइल बंद की — और अब उसे यकीन था… “उस दिन कुछ हुआ था। और शायद… वो आज भी ख़त्म नहीं हुआ।”
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फ्लैशबैक — 18 जून 2008, सुबह 8:17 AM पिंडारी वन क्षेत्र — चामकुंड रेंज का पूर्वी छोर साल की सबसे ठंडी बारिश बीती रात हो चुकी थी। पेड़ों की पत्तियाँ अब भी बूंदों से लदी थीं, और हर कदम पर ज़मीन कीचड़ से भर रही थी। जंगल में नमी थी, मिट्टी भारी थी, और हवा — कुछ ज़्यादा ही शांत।
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आर.एस . रावत, खाकी यूनिफॉर्म में सीधा खड़ा था। उसकी कमर पर बंधा कंपास हौले-हौले झूल रहा था, और उसके कंधे पर फील्ड बैग टंगा हुआ। उसने जैकेट की जेब से अपना जीपीएस डिवाइस निकाला — जिसकी स्क्रीन बार-बार सिग्नल खो रही थी। “बारिश के बाद यहाँ सिग्नल बेकार हो जाते हैं…” उसने खुद से कहा, फिर डिवाइस वापस जेब में डाल दिया।
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उसके साथ कुछ दूर खड़ा था — पंकज डुमका, स्थानीय गाइड। ऊँचाई से साँस लेता हुआ, हाथ में लकड़ी की एक लंबी छड़ी, और गले में बंधा रुद्राक्ष का माला। पंकज ने इधर-उधर देखा, फिर एक सूखी साँस छोड़कर कहा: "साहब… गाँव वाले कहते हैं वहाँ कुछ है…” “वो पत्थर… कोई साधारण चीज़ नहीं।” “कहते हैं… वहाँ साँप नहीं रहते — वहाँ कुछ और रहता है।”
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रावत ने उसकी बात सुनी, फिर पत्तियों से भरा एक पत्थर हटाकर आगे बढ़ा। वो रुका — पीछे मुड़कर पंकज की तरफ़ देखा, और मुस्करा दिया। उस मुस्कान में कोई दंभ नहीं था, बल्कि एक सच्चे वन अधिकारी की ठंडी दृढ़ता थी: "अगर डर से काम रुक जाए…” “तो जंगलों की रक्षा कौन करेगा?”
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रावत ने अपने नक्शे को जेब में फोल्ड कर रखा, फिर चुपचाप आगे चल दिया। पंकज कुछ पल वहीं खड़ा रहा — फिर उसकी छड़ी जमीन में गाड़ी, और दबे पाँव उसके पीछे हो लिया।
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जंगल और शिला क्षेत्र की ओर यात्रा शुरू हुई थी…पेड़ अब और घने हो चले थे, और सूरज की किरणें पत्तों से छनकर नीचे तक नहीं आ रही थीं। हवा में गंध थी —पुरानी, सड़ी हुई, जैसे कोई जगह बहुत वक़्त से सांस नहीं ले रही हो।
रावत हर निशान पर ध्यान दे रहा था — गिरे हुए पत्ते, ताज़े पंजों के निशान, और पेड़ों पर बने सर्प-चिन्ह। उसकी हर स्टेप एक डॉक्यूमेंट थी। हर नज़र — एक खोज। पंकज पीछे से बुदबुदाया: “साहब… ये जगह मेरे बाबा कहा करते थे —जो केवल सोई हुई है, मरी नहीं।”
रावत बिना मुड़े बोला: “सोने वाले भी जागते हैं, पंकज…सवाल ये है — क्या हम तैयार हैं देखने के लिए?” और फिर…एक मोड़ आया — जहाँ रास्ता नहीं था। बस घास थी —और उस घास के बीच… एक पत्थर की नोक झाँक रही थी।
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रावत और पंकज ने जैसे ही दक्षिणी दिशा की ओर चढ़ाई शुरू की, पेड़ों की बनावट बदलने लगी। अब वो खुले जंगल से नहीं, बल्कि एक संवेदनशील क्षेत्र में दाख़िल हो चुके थे।पेड़ों की शाखाएँ आपस में इस तरह उलझी थीं, जैसे कोई पुराना मन्त्र बन रही हों — और उनके बीच की हवा… अब सिर्फ़ हवा नहीं थी। वो भारी थी, ठंडी नहीं — ठहरी हुई।
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पगडंडी अब ग़ायब थी। घास ऊँची थी, और हर कुछ कदम पर ज़मीन में गहरे बिल दिखाई देने लगे। रावत ने पहली बार रुककर नीचे देखा — एक साँप का बिल — काली, गीली मिट्टी से घिरा, और उसके चारों ओर हल्के-हल्के “चिह्न” — मानो किसी ने चारों ओर आकृतियाँ बनाई हों।

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पंकज ने धीमे से कहा: "साहब, ये इलाका नागों का घर है।हमारे यहाँ इसे 'सर्प क्षेत्र' कहते हैं। लोग यहाँ बिना हनुमान चालीसा पढ़े कदम नहीं रखते…” रावत ने कुछ नहीं कहा।उसने अपने रजिस्टर की जेब से पेन निकाला, और एक नीली स्याही में लिखा: फिल्ड नोट – 8:42 AM
“क्षेत्र में सांपों की असामान्य उपस्थिति। हर पाँच से सात मीटर पर सक्रिय बिल या सांपों के निशान। कुछ पत्थरों पर वैदिक शैली के नाग चित्र उकेरे गए हैं — ज्यामितीय ढंग से एक ‘मंडल’ के आकार में।”
 “यह संभवतः कोई पूजास्थल है —जो पूर्व-शास्त्रीय या आदिश्रुति काल का हो सकता है।”
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थोड़ी ही दूरी पर एक काले पत्थर पर उसकी नज़र गई जिस पर नाग की आकृति उकेरी हुई थी। लेकिन यह कोई साधारण मूर्ति नहीं थी — एक सीधा फन, दो आँखें — जो बंद थीं और नीचे एक लंबा शरीर, जिसके छोर पर लिपटी हुई थी ओम की तरह बनी एक रेखा।
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रावत ने वहीं झुककर उसका चित्र खींचा, और देखा —वो पत्थर गर्म था। “साहब…” पंकज की आवाज़ धीमी हुई —“इन पत्थरों को ‘जाग्रत शिला’ कहते हैं। ये सर्दियों में भी गर्म रहते हैं।”
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रावत ने रजिस्टर में अगला नोट लिखा: “रेखांकन वैदिक प्रतीकों से मेल खाते हैं। शिलाओं में ऊष्मा — संभावित भू-तापीय प्रवाह? या… रेखीय ऊर्जा संकेंद्रण?”
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जैसे-जैसे वे आगे बढ़े, कुछ पेड़ों की छाल पर हल्की खुदाई दिखने लगी। रावत ने जब पास जाकर देखा, तो उसकी आँखें रुक गईं। संस्कृत के शब्द — बहुत पुराने अक्षरों में —जो अब शायद कहीं नहीं पढ़ाए जाते।
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 “त्राहि माम्…”
“नागेंद्राय नमः…”
“द्वारस्थं न उद्घाटयेत्…”
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रावत ने अपनी जेब से कैमरा निकाला — फ्लैश ऑन किया, और वो शब्द रिकॉर्ड किए। हर क्लिक के साथ, हवा और भारी हो गई। क्लिक. क्लिक. क्लिक.
 और फिर अचानक… हवा एकदम शांत हो गई। पंकज पीछे खड़ा था, उसके मुँह से फुसफुसाहट निकली। "हम सीमा के पास आ गए हैं साहब…” "अब से आगे… वो हमें देखता है।”
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रावत ने रजिस्टर की आखिरी लाइन में लिखा: “पेड़ों पर उकेरे गए संस्कृत मंत्र… संरचना संकेत देती है — हम किसी द्वार की सीमा में हैं।” और अब… सामने था — मूल सर्प शिला का पहला संकेत।
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जंगल के मध्य — दोपहर 12:03 PM, करीब दो घंटे की लगातार चढ़ाई के बाद, पेड़ों की अंतिम पंक्ति टूट गई। सामने खुला एक समतल चबूतरा था — घास से ढँका, पर बीच में एक चट्टान थी। और उस चट्टान के केंद्र में, एक काली, लंबवत खड़ी शिला — जो बाकी जंगल से अलग दिखती थी।
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शिला पर एक नाग की आकृति उभरी हुई थी, इतनी सजीव कि लगता साँस ले रही हो। फन फैला हुआ, आँखें बंद, और शरीर की रेखाएँ इस तरह मुड़ीं थीं कि नीचे एक प्राचीन मंत्र की संरचना सी बन रही थी।
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रावत आगे बढ़े। पंकज वहीं रुक गया। उसकी आँखें काँप रही थीं, गले से घुटी हुई आवाज़ निकली — "साहब… यही है…" "यही वो दरवाज़ा है!" रावत ने उस पत्थर पर दृष्टि डाली।नीचे खुदे हुए अक्षर अब साफ़ दिखे: “रक्तमात्रं प्रविशति। शेषः साक्षात् इह अस्ति।” उन शब्दों का अर्थ — रावत जानता था।
🔸 "केवल रक्त… इस द्वार में प्रवेश करता है।"
🔸 "शेष स्वयं… यहाँ उपस्थित है।"
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हवा अचानक भारी हो गई। सन्नाटा गूँजने लगा। रावत ने अपना दायाँ हाथ बढ़ाया — और शिला को छुआ। “झन्नाहट”
अगले ही पल — एक तेज़ कंपन उसके हाथ से पूरे शरीर में दौड़ गया। जैसे किसी ने उसके हड्डियों को हिलाया हो, या जैसे कोई बहुत पुरानी गूंज उसकी नसों में उतर गई हो। पंकज डरकर दो कदम पीछे हट गया। "साहब, छोड़िए… वो जाग जाता है जब कोई छूता है!"
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लेकिन रावत का हाथ अब भी शिला पर था। उसकी आँखें कुछ क्षण के लिए खुली नहीं — स्थिर थीं। शिला अब भी कंपन कर रही थी। लेकिन ये कंपन बाहर नहीं, रावत के भीतर था।
वो धीरे से फुसफुसाया — "ये… पत्थर नहीं है…” "ये साँस ले रहा है…” "ये मंदिर नहीं… एक द्वार है…" फिर उसने पीछे देखा, लेकिन पंकज वहाँ नहीं था। पंकज… भाग चुका था।
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रावत ने अपनी जेब से डायरी निकाली — और काँपते हाथों से सिर्फ़ एक लाइन लिखी: “द्वार सक्रिय है। पर खुलता कैसे है… यह प्रश्न अब मेरा नहीं रहा।” आसमान में गरज हुई —हल्की, धीमी… जैसे किसी बहुत नीचे के गुफा से उठी हो।शिला के पास मिट्टी गीली होने लगी थी। पर न बारिश थी, न नमी। रावत अब अकेला था। और दरवाज़ा… जाग चुका था।
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शिला क्षेत्र, दोपहर 12:17 PM, रावत अब भी वहीं खड़े थे —हाथ शिला पर, और शरीर की नसों में वो कंपन अब भी गूँज रहा था। पेड़ों की फुनगियाँ हिलनी बंद हो गईं थीं। जंगल की हवा अब केवल "हवा" नहीं थी — वो भारी हो चुकी थी। जैसे किसी ने किसी बहुत पुराने कमरे का दरवाज़ा भीतर से खोला हो।
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और फिर… एक धीमी, गहरी और सर्द आवाज़ गूँजी। वो न आसमान से आई, न ज़मीन से — वो सीधे रावत के भीतर गूँजी। “तू आया है…” “उसी रक्त का वाहक…” “वही… जिसने पिछली बार विश्वास तोड़ा था…”
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रावत के शरीर में एक झटका सा लगा। उसने तेज़ी से पीछे देखा — पर वहाँ कोई नहीं था। पंकज… भाग चुका था। और अब वो अकेले नहीं थे। वो आवाज़ दुबारा नहीं आई। पर अब हवा में एक बू थी — गीली, ज़मीन से उठती हुई — जैसे किसी साँप की त्वचा के नीचे कुछ गर्म और ज़िंदा सरकता हो।

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रावत के पैरों के नीचे की मिट्टी में अब हल्का धुआँ उठ रहा था। मगर उसमें जलन नहीं थी — बस एक गंध… पुराने रक्त की। रावत ने काँपते हाथों से अपनी डायरी निकाली। शब्दों की जगह कंपन था। फिर भी उसने लिखा: "मैंने जो महसूस किया — वो शक्ति नहीं थी…" "वो किसी की प्रतीक्षा थी।" "अगर मैं लौट न पाऊँ — तो ये जान लो…" "दरवाज़ा अब जाग चुका है।"
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रावत ने जैसे ही ये आखिरी शब्द लिखे — पास की ज़मीन पर एक लंबी दरार खिंच गई। शिला अब गर्म नहीं… धड़क रही थी। रावत ने सिर उठाकर उसे देखा — शिला के नाग की आँखें अब भी बंद थीं, पर अब ऐसा लग रहा था… वो किसी सपने में उसे देख रहा है।

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और इसी क्षण… कहानी वर्तमान में लौटती है। जहाँ आर्यन वो पन्ना पढ़ रहा है, और उसी आवाज़ की गूँज अब उसकी भी नींद में आने लगी है…
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वर्तमान में, चामकुंड गेस्ट हाउस, रात 11:46 PM आर्यन अब भी ज़मीन पर बैठा था — उस फाइल के आख़िरी पन्ने पर झुका हुआ। कमरे में बस टेबल लैम्प की मद्धम रोशनी थी, जो हर कुछ सेकंड में फ्लिकर कर रही थी — जैसे उसकी भी साँसें थमी हों। “...दरवाज़ा अब जाग चुका है।”
ये आख़िरी पंक्ति जैसे उसके भीतर धँस गई। आर्यन ने अचानक महसूस किया — उसका गला सूख गया है। उसने हाथ से गले को छुआ — साँसें तेज़ थीं… पर ध्वनि रहित।
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तभी… उसकी हथेली में एक चुभन उठी। वो वही हाथ था —जिस पर बचपन से एक अजीब-सा साँप जैसा चिन्ह था। वो निशान… जो कभी सिर्फ़ हल्की सी रेखा लगता था —अब गर्म हो रहा था। मानो कोई उसे अंदर से जगा रहा हो।
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आर्यन ने घबराकर हथेली को देखा — रेखा अब थोड़ी और गहरी लग रही थी। उसमें हल्की लाल आभा थी — जैसे त्वचा के नीचे कुछ रेंग रहा हो। कमरे की दीवारें अब शांत नहीं थीं।लकड़ी की पैनलिंग में धीमी चिटकन सुनाई देने लगी। खिड़की पर टँगी पुरानी जाली… एक पल के लिए फड़फड़ाई।
और फिर — वो आवाज़। एक धीमी, रेंगती हुई फुफकार…कोई साँप नहीं दिखा, पर ऐसा लगा जैसे… "वही कोई… अब भी यहाँ है।”
आर्यन ने खिड़की की ओर देखा — बाहर पूरी रात छायी थी।लेकिन खिड़की के काँच पर…अंदर से एक साँस की धुंध जमी थी। वो काँपता हुआ उठा। पर तभी… ज़मीन पर, बेड के पास… एक हल्की दरार थी। वही… जैसी उसके पिता ने आख़िरी दिन देखी थी।

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आर्यन अब समझ चुका था: ये खोज सिर्फ़ इतिहास नहीं है…ये एक उत्तराधिकार है। और दरवाज़ा… उसे पहचान चुका है।उसने काँपते हाथों से अपनी डायरी खोली। पहली बार खुद लिखा: “पिताजी ने जो देखा, वो अब मेरा हिस्सा बन चुका है।” “और शायद… मैं पहली साँस ले चुका हूँ उस दरवाज़े के भीतर।”
आर्यन ने जब टॉर्च की रोशनी दोबारा उस ज़मीन पर डाली, तो उसे एक कोना ढीला सा लगा। थोड़ा खुरचने पर मिट्टी के नीचे से एक पुरानी, सीलन भरी फाइल निकली...उस पर फटी-सी स्याही में लिखा था: "मूल सर्प मंदिर – वनस्पतिक विषमताएँ अवलोकन फ़ाइल, 1996" प्रस्तुतकर्ता: प्रो. अनीश रावल (मानव-पर्यावरण अध्ययन विभाग, देवसंस्कृति विश्वविद्यालय)"
आर्यन ने नाम पढ़ा और एक क्षण को ठिठक गया — उसे याद नहीं था कि इस नाम का ज़िक्र अब तक किसी रिपोर्ट में आया था। “1996...? इतना पुराना दस्तावेज़... लेकिन अभी तक किसी ने नहीं उठाया इसे?
 और ये नाम — प्रो. अनीश रावल — कौन था ये?”
आर्यन की उंगलियाँ काँप गईं। “शायद यही फ़ाइल वो पहला धागा है… जिससे इस पूरी उलझन की शुरुआत हुई थी।”

(जारी है...)