चामकुंड में आर्यन की तीसरी सुबह थी। पहाड़ों में सुबह जल्दी होती है — लेकिन यहाँ कुछ अलग था। यहाँ सुबह रोशनी से नहीं, एक अधूरी बेचैनी से शुरू होती थी। गेस्ट हाउस की दीवारों में जमी नमी अब तक बनी हुई थी —जैसे कमरे की हवा ने कोई कसम खा ली हो कि वह गर्म नहीं होगी।
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रात फिर अजीब थी। आर्यन को ठीक से नींद नहीं आई। हर रात की तरह…फिर वही ठंडी सिहरन उसकी रीड की हड्डी में उतरती रही — कोई सर्दी, जो हवा से नहीं, बल्कि किसी निगाह से निकलती हो।
कमरे में कुछ नहीं था — लेकिन फिर भी कुछ था। वो बार-बार पलटकर देखता, खिड़की के कोने, छत की बल्ब की झूलती परछाई, या दीवार की उस पुरानी तस्वीर की ओर —जिसमें अब भी उसके पिता की निगाहें जैसे उसे कुछ कह रही थीं, लेकिन मुंह नहीं खोलती थीं।
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लकड़ी की फर्श हर घंटे, हर हलचल पर चिटकती थी — और खिड़कियों पर लगी जाली से सीटी जैसी एक धीमी़ सायं-सायं की आवाज़ आती थी, जैसे कोई बाहर खड़ा — हर रात, बस एक जवाब चाहता हो।
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तीसरी सुबह आर्यन उठकर बाहर निकला। ठंडी मिट्टी पर नंगे पैर चलना एक अजीब-सी अनुभूति देता था — जैसे ज़मीन खुद कुछ याद दिला रही हो।
सूरज अभी पूरी तरह निकला नहीं था। वो बस पहाड़ी के पीछे से झाँक रहा था — उसकी किरणें अभी गाँव तक नहीं पहुँची थीं, लेकिन आसमान में हल्का गुलाबीपन फैल चुका था। गाँव अब भी नींद में डूबा था — दरवाज़े बंद, आँगनों में सन्नाटा, और पेड़ों पर चिड़ियाँ नहीं, सिर्फ हवा की फुसफुसाहट।
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आर्यन ने गेस्ट हाउस से कुछ दूरी पर एक ऊँचाई देखी —जहाँ से पूरे चामकुंड को नज़र भर देखा जा सकता था। वह उस ओर बढ़ गया — हर कदम पर उसकी साँसें, ठंडी हवा में धुँध जैसी बनती और गायब हो जातीं। और तभी… उसने पहली बार देखा —वो मंदिर।
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एक ऊँचे चट्टानी टीले पर, पेड़ों के झुंड के पार — एक धुँधली आकृति थी। शायद टूटी हुई… शायद अधूरी… शायद जानबूझकर छुपी हुई। कोई सीधा रास्ता नहीं दिखता था। पर मंदिर वहाँ था —साँस लेता हुआ, देखता हुआ, पर देखा न जाना चाहता हुआ।
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गाँव में किसी ने मंदिर की बात नहीं की थी — और न ही उधर इशारा किया था। “वो मंदिर… जिसकी तरफ़ कोई उंगली नहीं उठाता।” क्यों? क्या डर था? या… क्या यादें थीं?
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आर्यन की नज़र मंदिर से नहीं हट रही थी। उसके हाथ की रेखा… जिसे गाँव के किसी बुज़ुर्ग ने “वही रेखा” कहा था, अब धड़कने लगी थी। जैसे मंदिर के उस पार… उसका अतीत खड़ा उसे देख रहा हो। और अब, वो जानता था —उसका अगला क़दम कहाँ होना चाहिए।
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गेस्ट हाउस से नीचे उतरकर आर्यन उस ओर चल पड़ा जहाँ से सुबह सूरज की हल्की किरणें झाँक रही थीं। रास्ते में उसकी नज़र एक पत्थर से बने पुराने कुएँ पर पड़ी — जो गाँव के आखिरी किनारे पर स्थित था।
कुएँ के पास एक बुज़ुर्ग महिला बैठी थी। सिर पर सफेद कपड़ा ढ़ीले से बाँधा हुआ, माथे पर राख से खिंची सीधी ऊर्ध्व रेखा, आँखों पर मोटे शीशों वाला पुराना गाँधी चश्मा, और हाथ में पीतल का एक लोटा।
वो धीरे-धीरे पानी भर रही थीं लेकिन उनकी आँखें आर्यन को आते देख, पल भर को ठहर गईं। आर्यन रुक गया। उसने कुछ सोचकर हल्के स्वर में पूछा: “माँजी… क्या आप कुछ बता सकती हैं —इस गाँव की पुरानी जगहों के बारे में?”
महिला ने लोटा कुएँ की मुंडेर पर रखा, आराम से सीधी हुई, और बिना जल्दी किए उसकी ओर देखा। उनकी आँखें धूप से झिलमिलाती थीं — लेकिन उनमें स्पष्टता थी… और यादें।उनके चेहरे पर एक अजीब मुस्कान आई — न सहमती की… न असहमति की…बल्कि "तू पूछ तो रहा है… लेकिन जान नहीं सकता" वाली।
धीरे से पूछा — “क्यों जानना चाहता है?” “इतिहास के लिए?”
आर्यन कुछ क्षण चुप रहा। उसने महिला की आँखों में झाँका और ईमानदारी से कहा — “नहीं… शायद अपने लिए।”
महिला की मुस्कान गहरी हुई —पर अब उसमें एक दर्द घुला था। वो कुछ पल चुप रहीं। फिर उनकी उंगलियाँ धीरे-धीरे राख की रेखा को छूती हुई नीचे आईं। उन्होंने कुएँ की रेखा पर उँगलियाँ फेरीं, जैसे कुछ याद कर रही हों और फिर बारीक स्वर में बोलीं: “मत पूछ उस मंदिर का नाम…” “यहाँ कोई मुँह से नहीं लेता।” “जो जानने गए…” “वो लौटे ज़रूर…” “पर ख़ामोश।”
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आर्यन की रीढ़ में एक सिहरन दौड़ गई। उसने महसूस किया — ये कोई आम चेतावनी नहीं थी। ये शब्द — जैसे किसी इतिहास से निकली आवाज़ हो जो बार-बार दबाई गई हो, पर अब भी साँस ले रही हो।
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महिला ने पानी का लोटा उठाया, आर्यन की ओर एक आखिरी बार देखा — और कहा: “जिसे देखना नहीं चाहिए…उसे सिर्फ़ किताबों में पढ़ा जाता है बेटा… गाँव की ज़मीन पर नहीं।”
वो धीरे-धीरे पगडंडी से ऊपर चली गईं — और उनके कदमों के पीछे रह गई बस मिट्टी की धीमी सरसराहट…आर्यन वहीं खड़ा रहा — जैसे किसी पुराने सवाल ने अभी-अभी उसे छूकर निकल दिया हो।
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दोपहर का वक्त था। गाँव में हलकी धूप उतर आई थी, लेकिन गेस्ट हाउस के अंदर वही सर्द हवा बंद दरवाज़ों के भीतर टहल रही थी। आर्यन कमरे की अलमारी को टटोल रहा था —एक पुरानी, भारी-भरकम लकड़ी की अलमारी जिसके हैंडल में जंग लग चुका था, और नीचे दीमकों के निशान साफ़ थे।
अलमारी के अंदर पुराने दस्तावेज़ थे — धूल भरी फ़ाइलें, टूटे फोल्डर, एक मोथबॉल की गंध, और एक कोने में —एक मोटा रजिस्टर रखा था। उसका कवर अब मटमैला पड़ चुका था।धागे उधड़े हुए, किनारे झड़ चुके थे। लेकिन जैसे ही आर्यन ने उसे उठाया — उसका हाथ काँप गया। वज़न सिर्फ़ काग़ज़ों का नहीं था… बल्कि यादों और अधूरे सवालों का था।
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आर्यन ने रजिस्टर को वहीं मेज़ पर फैलाया। पन्ने पलटने शुरू किए। हर पन्ना — पुराने निरीक्षणों, तिथियों और वन विभाग की प्रविष्टियों से भरा था। कहीं पेड़ की कटाई का जिक्र, कहीं वन्यजीव देखे जाने की रिपोर्ट, और कहीं किसी जीप के टूटने या लौटने की तिथि।
लेकिन फिर… एक पन्ना ठहर गया। पन्ना नंबर 72। स्याही थोड़ी हल्की हो चुकी थी, लेकिन अब भी साफ़ पढ़ी जा सकती थी। लिखा था: "18 जून 2008 — वन निरीक्षण – आर. एस. रावत" दोपहर 2:15 – मंदिर शिला क्षेत्र की जाँच साथ में गाइड: पंकज डुमका लौट समय: दर्ज नहीं है।
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आर्यन के गले में कुछ अटक गया। उसने पन्ना दो बार पढ़ा।फिर उसकी साँसें तेज़ हो गईं। 18 जून 2008… यही वो दिन था — जिस दिन उसके पिता आख़िरी बार चामकुंड में देखे गए थे। उसी मंदिर क्षेत्र में गए थे… जहाँ आज भी कोई उँगली तक नहीं उठाता।
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आर्यन ने धीरे से पन्ने को छूआ — जैसे उस स्याही में अब भी उसके पिता की गर्माहट बची हो। “गाइड… पंकज डुमका…” उसने ये नाम पहली बार पढ़ा था। गाँव में कोई इस नाम को क्यों नहीं बताता? अगर पिता अकेले नहीं गए थे — तो गाइड ने क्यों कुछ नहीं कहा? और लौट समय — खाली क्यों है?क्या वे लौटे ही नहीं? या लौटकर… कुछ और बन गए थे?
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आर्यन ने वो पन्ना अपने मोबाइल में स्कैन किया, फिर धीरे से डायरी खोली और लिखा: "मंदिर क्षेत्र —वही दिन, वही शिला, वही गाइड। और शायद… वहीं मेरा जवाब छिपा है।" कमरे में चुप्पी थी। लेकिन उस पन्ने पर —इतिहास साँस ले रहा था।
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गाँव के प्रधान का घर मिट्टी और पत्थर से बना छोटा-सा अहाता था। आर्यन ने जब वहाँ पंकज डुमका का नाम लिया, तो प्रधान की आँखें कुछ पल को स्थिर हो गईं। “वो अब भी यहीं है… ढलान के नीचे रहता है — अपने जानवरों के साथ, अकेला।” “उम्र होगी साठ के करीब…लेकिन अब भी जंगल में काम करता है — और मंदिर के नाम पर चुप्पी साध लेता है।”
आर्यन पगडंडी से नीचे की ओर बढ़ा। धूप अब चट्टानों पर पड़ रही थी — लेकिन ढलान के उस छोर पर ठंडी हवा अब भी बह रही थी। नीचे एक छोटी खुली जगह थी — जहाँ एक अधपकी झोंपड़ी, लकड़ी की चरखी और बकरी बँधी थी।
वहीं एक दुबला-पतला आदमी बैठा था झुकी कमर, गले में बंधी ऊन की टोपी, हाथ में एक पुरानी रस्सी। आर्यन पास पहुँचा — और सीधे कहा: “आप मेरे पिता के साथ उस दिन गए थे… जब वो मंदिर क्षेत्र में गए थे।”
पंकज ने न तो चौंकने की एक्टिंग की, न ही कोई सवाल दोहराया। वो एकदम शांत रहा। फिर सिर उठाया, आर्यन को गौर से देखा, और धीमे से बोला — “तुम वही हो?” “रावत साहब का लड़का…”
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वो फिर चुप हो गया। उसकी आँखें अब ज़मीन पर गड़ी थीं —मानो पुराने दृश्य फिर ज़िंदा हो रहे हों। आर्यन ने एक कदम आगे बढ़ते हुए पूछा: “आप साथ थे न? उस दिन… मंदिर शिला क्षेत्र में?”
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पंकज ने घास का एक टुकड़ा तोड़ा, काँपते हाथों से बीड़ी निकाली, होंठों में दबाई, और जलाने से पहले सिर्फ़ इतना कहा: “वो जगह मंदिर नहीं है…” “वो दरवाज़ा है।” “जिन्हें नहीं खोलना चाहिए…”
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आर्यन की साँसें तेज़ हो गईं। उसने उसकी बाँह कसकर पकड़ी: “आप साथ थे… फिर क्या हुआ?” “क्यों नहीं बताया किसी को?” “क्यों छुपाया?”
पंकज ने पहली बार बीड़ी में कश लिया — धुआँ मुँह से बाहर नहीं निकाला… बस आँखों से बह गया। फिर एक सूखा-सा स्वर निकला: “शिला पर साँप खुदे हुए थे…” “और साहब ने उन पर हाथ रखा।” “तभी… ज़मीन काँपी।” “एक आवाज़ आई — लेकिन वो इंसानी नहीं थी।” “कोई शब्द नहीं था —बस… ध्वनि, जो सीधी आत्मा में उतर जाए।” “वो कुछ खोल गया था…” आर्यन अब सन्न था। “और फिर?”
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पंकज ने बीड़ी ज़मीन पर फेंकी, अपनी आँखें पोंछी, और बकरी की रस्सी कसते हुए कहा: “मैं… भाग गया।” “साहब वहीं थे — और फिर कभी नहीं दिखे…” उसका स्वर टूटा हुआ था — न डर से, न अपराधबोध से —बल्कि उस अनुभूति से, जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता।
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आर्यन ने फिर कुछ पूछना चाहा — लेकिन पंकज अब अंदर जा चुका था।उसने दरवाज़ा बंद नहीं किया बस धीरे से टिका दिया। जैसे किसी उत्तर की गूँज अब भी बाहर तैर रही हो।गाँव की हवा अब भारी थी। "वो मंदिर नहीं… दरवाज़ा है।" आर्यन के दिमाग में यही गूंजता रहा।
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चामकुंड की रातें पहले भी अजीब थीं — लेकिन इस रात में कुछ बदला हुआ था। गेस्ट हाउस का कमरा पहले जैसा ही था — वही लकड़ी की फर्श, वही पुरानी मेज़, और वही तस्वीर — जिसमें R.S. Rawat की निगाहें हर बारथोड़ी और गहरी लगती थीं।
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आर्यन चुपचाप लेटा था। बैग सिरहाने, डायरी उसकी छाती पर रखी हुई, और आँखें खुली थीं — किसी उत्तर की दिशा में बँधी हुई। लेकिन ये रात अलग थी। इस बार सपने नहीं आए।कोई भटकाव नहीं, कोई दृश्य नहीं, कोई आवाज़ नहीं — बस एक ख़ालीपन, जो इतनी देर तक घूरता रहा कि नींद खुद थक गई।
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पर उससे पहले — कुछ हुआ था। आर्यन की आँखें भारी हो रही थीं, और कमरे में सन्नाटा चुभने लगा था। तभी —खिड़की की पुरानी जाली पर एक धीमी सी फुफकार सुनाई दी। ना तेज़, ना स्पष्ट… बस एक धीमी, गीली साँस की तरह, जैसे कोई बहुत पास आकर खड़ा हो — और बस देख रहा हो।
आर्यन ने एक झटके से आँखें खोलीं। खिड़की पर कुछ नहीं था। बस जाली हिल रही थी… और बाहर की हवा कुछ ज़्यादा ज़िंदा महसूस हो रही थी। वो उठा, धीरे से खिड़की तक गया, और बाहर झाँकने की कोशिश की। कुछ नहीं था। लेकिन जाली पर एक चीज़ थी —एक बेहद हल्की, टेढ़ी सी आकृति…जैसे नमी में किसी ने जीभ या साँप जैसी कुछ चीज़ रगड़ी हो।
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आर्यन पीछे हटा। उसने खिड़की बंद नहीं की — बस परदे खींच दिए। जैसे वो खुद को यक़ीन दिलाना चाहता हो — कि जो देखा, वो कुछ नहीं था। पर जो सुना… वो अब भी उसकी साँसों के पीछे छिपा बैठा था।
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आर्यन ने उस रात डायरी में सिर्फ दो पंक्तियाँ लिखीं — धीरे… काँपते हाथों से, जैसे हर शब्द उसके भीतर से निकलकर दीवारों में गूंज रहा हो: “अगर वो मंदिर नहीं, कोई द्वार है — तो उसके उस पार क्या है?” “और अगर पिताजी ने कुछ जगा दिया था… तो क्या वो अब भी
जागा हुआ है?”
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कमरे में फिर वही सन्नाटा फैल गया। लेकिन अब वो सन्नाटा…बस ख़ामोश नहीं था। वो देख रहा था।
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(जारी है...)

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