रात 12:13 बजे घड़ी की सुइयाँ एक अजीब सी सच्चाई पर टिक गईं थीं। रितिका उस पुराने बंगले में अकेली थी, जहाँ अब तक कोई किरायेदार दो रातों से ज्यादा नहीं टिक पाया था।

बंगले के हर कमरे की खिड़की लोहे की थी—मोटी सलाखों वाली, मगर एक खिड़की ऐसी थी जो न तो कभी बंद होती थी, और न ही उसमें ताला लगता था।

रितिका ने जब वहाँ पहली रात बिताई, तो उसे खिड़की के पास से एक धीमी फुसफुसाहट सुनाई दी—"क्या तुम भी भाग जाओगी?"

उसने सोचा यह भ्रम होगा, लेकिन अगली रात खिड़की के पास कुछ और दिखाई दिया—एक काली परछाई, जो बस वहाँ खड़ी थी, हिलती भी नहीं।

तीसरी रात, खिड़की के बाहर कुछ लिख दिया गया था—“मत देखो बाहर... वरना मैं अंदर आ जाऊँगा।”

रितिका डर गई, पर साहसी थी। उसने खिड़की के बाहर झाँका और तभी...

टप-टप-टप... किसी के नाखूनों की आवाज़ खिड़की पर आई... फिर आवाज़ भीतर से आई: "अब मैं अंदर हूँ..."

और उसी रात, रितिका भी गायब हो गई... कमरे की खिड़की आज भी खुली है, किसी नए किरायेदार का इंतज़ार करती हुई।


क्या तुम अगली दहशत का सामना करोगे?

"वो औरत जो अमावस को कुएं के पास मिलती है | डरावनी कहानी" में छिपा है वो राज़... जो इस रात को और डरावना बना देगा।

(क्लिक करने से पहले सोच लो... लौटना आसान नहीं होगा...)

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